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कीर्तन के साथ भगवन्नाम माहात्म्य से समस्त प्रकार के आधि-व्याधि उपद्रवों के नाश होने का प्रभावोत्पादक वर्णन किया गया है ।
स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र ( आर्या छन्द ११ ) में स्तम्भनपुर के प्रसिद्ध तीर्थपति पार्श्वनाथ की एवं महावीर विज्ञप्तिका (आर्या छन्द १२ ) में श्रमण भगवान् महावीर की सुन्दर और सुललित पदों में स्तवना की गई है। भाषा प्राकृत और छंद आर्या ही है ।
३०. महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें सर्वज्ञ-जिनेश्वरों की सेवा में कवि ने अत्यन्त ही भक्ति से ओतप्रोत एक विज्ञप्ति की है । कवि सांसारिक भव- बन्धनों से, जन्म, जरा, मरण, दुःख, शोक आदि से त्रस्त होकर सर्वज्ञ-जिनेश्वरों के अपरिमित एवं अनन्त गुणों का संस्मरण करता हुआ तथा उनके सन्मुख अपने अवगुणों की स्पष्ट रूप से निन्दा, गर्हा और प्रायश्चित्त करता हुआ दृष्टिगत होता है। उसकी प्रार्थना है कि भगवान् उसे सम्यक्त्व (बोध) प्रदान करते हुए शिवनगरी का मार्ग शीघ्र बतायें। इस विज्ञप्ति में ३७ आर्याओं के अतिरिक्त अन्तिम छन्द वसन्ततिलका है ।
३१. नन्दीश्वर चैत्य स्तव
नन्दीश्वर नामक अष्टमद्वीप में स्थित शाश्वत ५२ जिनालयों और उनमें प्रत्येक चैत्यालयों में स्थित १२४ जिन - प्रतिमाओं का कवि ने भक्ति पुरस्सर वन्दन करते हुए अपनी लघुयोजना शैली द्वारा पच्चीस आर्याओं में आकर्षक वर्णन किया है ।
कवि के वर्णनानुसार प्रत्येक दिशा में अंजनगिरि (कृष्णवर्ण वाले) पर्वत हैं; जिनके नाम हैं - देवरमण, नित्योद्योत, स्वयंप्रभ और रमणीय । प्रत्येक अंजनगिरि के चारों दिशाओं में चार-चार पुष्करिणियां हैं अर्थात् चार अंजनगिरि के चारों तरफ १६ पुष्करिणीयें हैं जो नन्दिषेणा, अमोघा, गोस्तूपा, सुदर्शना, नन्दोत्तरा, नन्दा, सुनन्दा, नन्दिवर्धना, भद्रा, विशाला, कुमुदा, पुण्डरीकिनी, विजया, वैजयन्ती, जयन्ति और अपराजिता के नाम से जानी जाती हैं । प्रत्येक पुष्करिणी के चारों दिशाओं में एक-एक वन खंड हैं जो अशोक वन खण्ड, सप्तपर्ण वन खण्ड, चम्पक वन खण्ड और आम्रवन खण्ड के नाम से विख्यात हैं । अतः कुल ६४ वन खण्ड हुये । प्रत्येक पुष्करिणी के मध्य में एक दधिमुख (श्वेत) गिरि पर्वत होने से कुल १६ दधिमुख पर्वत हैं। प्रत्येक दधिमुखपर्वत के अन्तराल में दो-दो पुष्करिणीयें हैं और प्रत्येक पुष्करिणी के मध्य में दो-दो रतिकर ( लालवर्ण) नाम के पर्वत हैं। इस प्रकार कुल ३२ रतिकर पर्वत होते हैं। इस प्रकार समग्र ५२ पर्वत हुए ।
प्रत्येक पर्वत के ऊपर एक-एक जिनचैत्य हैं, जिनके प्रत्येक दिशा में चार-चार दरवाजे हैं, जो प्रत्येक में देवद्वार, असुरद्वार, नागद्वार तथा सुपर्णद्वार कहलाते हैं । इन द्वारों से चैत्यालय में देवादि अपने-अपने द्वार से प्रवेश करते हैं । प्रत्येक चैत्य में पांच सौ धनुष प्रमाणोपेत १२० प्रतिमायें हैं । प्रत्येक चैत्य में एक मणिमय वेदिका है और उस पर ऋषभानन, चन्द्रानन, वारिषेण और वर्धमान शाश्वत नामधारक तीर्थंकरों की प्रतिमायें हैं । प्रत्येक प्रतिमा के परिकर में ६ ६ प्रतिमायें अवस्थित हैं ।
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[ वल्लभ-भारती