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६७, ७०, ७१, ७२, ७५, ७६, ७८), स्रग्धरा ( ५, ७, १०, १२, १८, २२, २६, २८, ३२, ३४, ३७, ३८, ४१, ४६, ४७, ४६, ५१, ५३, ५६, ६८, ७७ ) का प्रयोग किया है ।
आचार्य जिनवल्लभसूरि वि० सं० १९६७ में चित्तौड़ में आचार्य पदारूढ़ हुए और ११६७ में ही चित्तौड़ में उनका स्वर्गवास हुआ। स्वर्गारोहण के ४ वर्ष पूर्व ही अर्थात् ११६३ में उन्होंने इस प्रशस्ति की रचना की । रचना में प्रौढ़ता, प्राञ्जलता लाक्षणिकता, चित्रात्मकता आदि काव्य के समस्त गुण पद-पद पर प्राप्त होते हैं । कवि का चित्रकाव्य प्र ेम भी पद्य ७६ पर द्रष्टव्य है ।
वैशिष्ट्य - वि० सं० १९६३ में चित्रकूट पर परमारवंशीय महाराजा नरवर्मा का आधिपत्य, तत्कालीन चित्तौड़ के विधिपक्षीय प्रमुख श्रेष्ठि, और कवि जिनवल्लभ को स्वलेखिनी से अति आत्मकथा आदि होने से इस प्रशस्ति का ऐतिहासिक सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है | आत्मकथा का ऐतिहासिक सारांश पूर्व परिच्छेद- जीवन-चरित्र में दिया जा चुका है।
इस प्रशस्ति की रचना मेदपाट देश (मेवाड़) की राजधानी चित्रकूट (चित्तौड़) परमार वंशी महाराजा श्री नरवर्मा के राज्यकाल में हुई है । महाराजा नरवर्मा का परिचय देते हुये कवि ने उनके पूर्वज विश्व प्रसिद्ध धाराधीन भोजनृपति का और महाराजा उदयादित्य का भी कीर्तिगान किया है। महाराजा भोज का यशोगान करते हुये कवि कहता है किवाग्देवता ने वेदाभ्यास से कुण्ठित बुद्धि वाले पुराण- पुरुष ब्रह्मा का त्याग कर भोज का वरण कर लिया है । यही कारण है कि भोज ने स्रष्टा के समान ही तर्क, व्याकरण, इतिहास, गणित आदि संस्कृति के प्रधान वाङ्मयों की रचना की है।
कवि ने उदयादित्य के लिये 'महावराहवपुषा' विशेषण का प्रयोग करते हुये उसे मालव्यभूमि का उद्धारक बतलाया है। ऐसा प्रतीत होता है कि महाराजा भोज के पश्चात् मालव प्रदेश पर गुजरात के भीम और चेदि के कर्ण ने अधिकार कर लिया होगा । उस समय आदिवराह के समान ही उदयादित्य ने विपक्षी नरेगों के चंगुल से छुड़ाकर मालवा पर पुनः अधिकार किया होगा ।
कवि ने नरवर्मा' को प्रबल प्रतापी दुर्धर्ष योद्धा, बुद्धिमान, धर्मप्रेमी, महानीतिज्ञ और समर विजयी कहा है। इससे यह स्पष्ट है कि मेवाड़ पर नरवर्मा ने ही अधिकार किया
था ।
१. कोटा स्टेट म्युजियम में नरवर्म राज्य काल के दो मूर्तिलेख प्राप्त हैं
१. ६० ।। संवत् १९६५ ज्येष्ठ सुदी ६ पंडित श्री मल्लोकनन्दि धात्रेण सुभंकर पुत्रेण सौवारिक सहदेवेन कम्यनिमित्तेन कारायितं । श्री नरवर्मदेवराज्ये
२. श्री नरवर्म्मदेवराज्ये संवत १९८० (?) झापाढ वदि १ अग्रवालान्वय साधु जिनपालसुत यमदेवः पु'"""""••••••
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[ वल्लभ-भारती