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'अतएव लिङ्गिपरिगृहीतचैत्यानां युगप्रवर- जिनवल्लभसूरिदेशनावशादनायतनत्वं निर्णीय श्रीचित्रकूटे प्रभुभक्त श्रावकैः श्रीमहावीरजिननिकेतनं विधिचैत्यं विधिपथप्रचिकापिया निर्मायाम्बभूवे । तथा चैतदर्थ सत्यापिका तत्वत्या प्रशस्तिः ।"
[ संघपट्टक पद्य ३३ की टीका ] यह प्रशस्ति शिलापट्ट पर उत्कीर्ण कर वि० सं० ११६३ में चित्तौड़ में नवनिर्मापित महावीर विधि चैत्य में लगाई गई थी । देव दुर्विपाक से चित्तौड़ में न तो आज महावीर चैत्य ध्वंसावशेष ही प्राप्त हैं और न शिलापट्ट के अवशेष ही । शिलापट्ट नष्ट होने से पूर्व ही किसी अज्ञात नामा इतिहास और साहित्यप्रिय विद्वान् ने इसकी प्रतिलिपि की थी, वही एक मात्र प्रति के रूप में, लालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में उपलब्ध है । यह कोई ग्रन्थ होता तो, कहीं न कहीं भंडारों में इसकी अन्य प्रतियां अवश्य प्राप्त होतीं, किन्तु मन्दिर की प्रशस्ति होने के कारण अन्य प्रति की संभावना नहीं के समान है ।
प्रशस्ति का सार - इस प्रशस्ति के आरम्भ में कवि ने त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश), महावीर, आदिनाथ, पार्श्वनाथ और सरस्वती देवी को नमस्कार किया है ( पद्य १-५ ) 1 परमारवंशीय महाराजा भोज (पद्य ६-१४), मालव्यभूरुद्धारक उदयादित्य (पद्य १५-२० ) और चित्रकूटाधिपति नरवमं ( पद्य २१ - २८ ) का यशोगान एवं मेदपाट देश की राजधानी चित्रकूट ( पद्य २ - ३५ ) की शोभाश्री का सालंकारिक सुन्दरतम वर्णन करते हुये तत्रस्थ अम्ब, केहिल आदि श्र ेष्ठियों का ( पद्य ३६- ३८ ) उल्लेख किया है ।
चन्द्रकुलीय वर्द्ध मानसूरि के विष्य जिनेश्वरसूरि (पद्य ३१ - ४४ ) और नवाङ्गी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ( पद्य ४५ - ५१ ) के प्रशस्य गुणों का कीर्त्तन करते हुए (पद्य ५२ से ६४ में ) कवि ने अपनी संक्षिप्त आत्मकथा और चित्तौड़ में स्वप्रतिबोधित श्रेष्ठियों के नामों का आलेखन किया है।
पद्य ६५ से ७२ में अनेक जिन मन्दिरों से मण्डित चित्रकूट में नवीन विधि चैत्य के निर्माण का उद्देश्य, निर्माण कार्य में विघ्न, तथा कार्य की समाप्ति, महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा और उपासकों की धार्मिक प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुये नृपति नरवर्म द्वारा प्रति रवि-संक्रान्ति पर पारुत्थ-द्वय देने का संकेत किया है ।
पद्य ७३-७४ में विधिपक्षीय चन्यों की मान्यता के आदेश हैं और पद्य ७६-७८ तक कवि ने अपना नाम और प्रशस्ति का रचनाकाल १९६३ देते हुये प्रशस्ति टंकनकार सूत्रधार रामदेव का नाम दिया है ।
कवि ने इस प्रशस्ति में मात्रिक छन्दो में आर्या (३, २३, ३६, ३६, ७३ ), उपगीति (१६) और वर्णिक छन्दों में अनुष्टुप् (८, ५४, ५६, ५७), इन्द्रवज्रा (६४), इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रोपजाति के भेदो में - प्रेमा (२१, २५), आर्द्रा (६१), शाला (६२), बाला (६३) -, वंशस्थविला (१), वसन्ततिलका (४, २६, ४०, ५२, ६५), मालिनी ( ६९, ७४), पृथ्वी ( ३३, ४५), शिखरिणी ( ६ ), मन्दाक्रान्ता (३१), हरिणी (६, २७), शार्दूलविक्रीडित ( २, ११, १३, १४, १५, १७, १९, २०, २४, ३०, ३५, ४२, ४३, ४४, ४८, ५०, ५५, ५८, ६०, ६६,
वल्लभ-भारती ]
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