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विशुद्ध रत्नों के समान सर्वज्ञ प्रणीत शुद्ध धर्म के ग्राहक एव पालक अल्प ही होते हैं, अतः श्रमण एवं उपासकों को शिथिलाचारियों एवं कुतीर्थिकों के धर्म का त्याग करना चाहिये । इस काल में शुद्धधर्म का पालन अति दुष्कर है - ऐसा उन्हें नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत संसार-दुःखनाशन हेतु शुद्धधर्म का अप्रमत्त होकर आराधन करना चाहिये। इसी से भविष्य में मुक्ति प्राप्त हो सकती है । अन्यथा विपरीत आचरण करने से चैत्यद्रव्योपयोगी संकाश श्रावक एवं चैत्यवासी देवसाधु की तरह अनन्तकाल तक भव-भ्रमण करना पड़ेगा ।
अतः भव्य श्रद्धालुओं को जिन गृहों में थूकना, ताम्बूल खाना, विकथा करना, आसनपाट पर बैठना, सोना, खाना-पीना, हंसी मजाक करना, स्त्रियों के साथ नर्मालाप करना, देवद्रव्य का स्वयं के कार्यों में उपभोग करना, रात्रि में नाच-गान करवाना आदि निषिद्ध क्रियाओं का तथा आशातनाओं त्याग का कर शास्त्रोक्त पूजा-अर्चनादि करनी चाहिये जिससे कि कल्याण हो ।
कृति के उत्तरार्द्ध भाग (पद्य ३७-७० ) में कवि का लेखन है कि
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इस हुण्डावसर्पिणी काल में दशम आश्चर्य रूप असंयत पूजा और भस्म राशि ग्रह के प्रभाव से शास्त्रोक्त क्रिया एवं आचार का पालन करने वाले सुसाधुजन अत्यल्प होंगे और वेषधारी पार्श्वस्थ- कुशील आदिकों की बहुलता रहेगी। ये लोग जिनशासन और प्रवचन के लिये असमाधिकारक होंगे और स्वयं के लिये वे कलहकारी एवं डमरकारी होंगे। ये पार्श्वस्थ शास्त्रों की आड में मन्दिरो में निवास की उपयोगिता बताते हुए सिद्धान्त विपरीत आचरण करेंगे और समाज को भी उसी गढ्ढे में धकेलेंगे, इससे इनके भवभ्रमण की वृद्धि होगी । इस प्रकार चंत्यवासी शिथिलाचारियों की मान्यता और प्ररूपणा को शास्त्रविरुद्ध होने से त्याज्य, निन्द्य, गर्हणीय कहकर, मखौल उडाते हुये सुविहित धर्म की ओर भव्यों को आकृष्ट करने का प्रयत्न किया है। अन्त में श्रद्धालुओं को उपदेश देते हुये कहा है
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जिनेन्द्र भाषित श्र ेष्ठ अनुष्ठान जो तुम्हारे लिये शक्य है उसे पूर्णशक्ति एवं पराक्रम के साथ पालन करो और जो विशिष्ट धैर्य-संहनन आदि के कारण अशक्य है तो उसके प्रति हृदय में श्रद्धा एवं बहुमान रखो तथा शुद्ध प्ररूपणा करो, जिससे तुम्हें सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हो
१२. अष्ट सप्तति : चित्रकूटीय वीर चैत्य-प्रशस्ति
इस कृति में कुल ७८ पद्य होने से इसका नाम आचार्यश्री ने स्वप्रणीत षडशीति, सार्द्धशतक, स्वप्नसप्तति, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक आदि ग्रन्थों के समान ही अष्टसप्तति रखा है या प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है । प्राप्त ग्रन्थ की पुष्पिका में 'प्रशस्तिजिनवल्लभीति' लिखा है। एवं श्री जिन पालोपाध्याय ने भी 'चर्चरी' पद्य ४ की टीका में, जिनवल्लभ प्रणीत ग्रन्थनामों में 'प्रशस्तिप्रभृतिकम्' का उल्लेख किया है । आचार्य श्रीजिनपतिसूरिने चित्रकूट में नवनिर्मापित महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा से सम्बद्ध प्रशस्ति होने से इसका नाम 'चित्रकूट- वीर चैत्यप्रशस्ति' माना है:
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[ वल्लभ-भारती