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चुका था । इसलिये जब आश्विन कृष्णा त्रयोदशी के आने पर जिनवल्लभगणि ने श्रावकों को कहा कि आज हमें श्रमण भगवान् महावीर का छठा कल्याणक मनाना है तो वे बड़े आश्चर्य गये । परन्तु जब उनको आगमों के प्रमाण देकर समझाया गया तो वे लोग छठे कल्याणक को मनाने के लिये सहर्ष तैयार हुए। वहाँ के सभी देवालय चैत्यवासियों के थे; अतः प्रश्न यह था कि उसको कहाँ मनाया जाय ? प्रथम तो जिनवल्लभगणि के नेतृत्व में सभी श्रावक एक चैत्यालय पर गये, परन्तु उनको देखते ही उस चैत्यालय की एक आर्या धरना देकर द्वार पर बैठ गई । उसका कहना था कि ऐसा काम कभी भी नहीं हुआ, गर्भापहार का उत्सव किसी ने नहीं मनाया, इसलिये मैं अपने जीते जी कदापि न होने दूंगी । वहुत समझानेबुझाने पर भी जब उसने अपना हठ नहीं छोड़ा तो जिनवल्लभगणि सारे श्रावकों को लेकर वापिस अपने स्थान पर लौट आये। अन्त में एक श्रावक के घर पर ही भगवान् की मूर्ति की स्थापना कर वह उत्सव सम्पन्न किया गया ।
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इस घटना से जिनवल्लभगणि के श्रावकों को अपनी उपासना के लिये एक स्वतंत्र देवगृह की आवश्यकता प्रतीत हुई । अतः उन्होंने गणिजी के सामने दो देवालय बनाने की इच्छा प्रकट की । गणिजी ने भी उनके इस पुण्य प्रयत्न को श्रावकों का आवश्यक कर्त्तव्य व आचार बतलाया और श्रावकों ने भी निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया । सत्कार्य में विघ्न होते ही हैं । इस कार्य में भी अकारण ही वसुदेव नामक सेठ विघ्नरूप बनकर उपस्थित हुआ और उसने इन देवगृह निर्माण करने वाले श्रावकों को कापालिक तक कह डाला । एक दिन बाहर जाते हुए गणिजी को वह मिल गया, तो उन्होंने बड़े प्रेम पूर्वक उससे कहा कि 'भद्र वसुदेव ! गर्व करमा ठीक नहीं है। जो श्रावक देवालय बनवा रहे हैं उनमें कोई ऐसा भी होगा जो तुम्हें कभी बन्धन मुक्त करेगा ।' उस समय तो वसुदेव सम्भवतः इन शब्दों के मर्म को न समझ सका । परन्तु कुछ दिनों बाद जब वह किसी अपराध के कारण राजा का कोपभाजन हुआ और उसे ऊंट के साथ बांध के ले जाने की आज्ञा हुई तो जिनवल्लभगणि के भक्तं श्रावक साधारण नाम के सेठ ने ही उसको छुड़ाया । अन्त में उक्त दोनों मन्दिर पूर्ण हो गये और वाचनाचार्य जिनवल्लभगणि ने पार्श्वनाथ और महावीर विधि-चैत्यों की स्थापना कर दी ।
नवीन विधिचैत्यों के निर्माण का यही कारण देते हुये स्वयं आचार्य जिनवल्लभ स्वप्रणीत अष्टसप्ततिका अपरनाम चित्रकूटीय वीर चैत्य - प्रशस्ति पद्य ६६-६७ में लिखते हैं:क्षुद्राची कुबोधकुग्रहहते स्वं धार्मिकं तन्वति. द्विष्टानिष्टनिकृष्ट घृष्ट मनसि क्लिष्टे जमे सूयसि । ताद्गुलोकपरिग्रहेण निविडद्वषो रागग्रहग्रस्तैतद्गुरुसात्कृतेषु च जिनावासेषु भूम्नाधुना ॥ ६६॥ तत्त्वद्वेषविशेष एष यदसन्मार्गे प्रवृत्तिः सदा, सेयं धर्मविरोधबोधविधुतिर्यत्सत्पथे साम्यधीः । तस्मात्सत्पथमुद्विभावयिषुभिः कृत्यं कृतं स्यादिति श्रीवीरास्पदमाप्तसम्मतमिदं ते कारयाञ्चक्रिरे ॥ ६७ ॥
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