________________
पांच महाकाव्य, अन्य काव्य तथा जयदेव प्रभृति कवियों द्वारा रचित छन्द-शास्त्र के वे विशेष मर्मज्ञ थे। पिण्डविशुद्धि प्रकरण, षडशोति कर्मग्रन्थ, संघपट्टक, सूक्ष्मार्थ-विचारसार, पौषधविधि प्रकरण, धर्मशिक्षा, द्वादश कुलक, प्रश्नोत्तर शतक, प्रतिक्रमण समाचारी, अष्टसप्तति का, शृङ्गार शतक आदि अनेक प्रन्थों व स्तोत्रों की रचना प्रापने की, इनसे प्रापका प्रकांड वद्वान् होना भली मांति सिद्ध है । इन्हीं के पट्ट पर युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज हुए हैं। जिनकी सब सम्प्रदाय वाले पूर्ण श्रद्धा व भक्ति से अर्चना व पूजा करते हैं। इन्होंने एक लाख तीस हजार नूतन जैनी बनाए एवं स्वहस्त से १५०० साधुओं को दीक्षित किया था।
मुनि श्री जिनविजयजी ने खरतरगच्छ के सम्बन्ध में जो भावोद्गार प्रगट किये है उनका अंश नीचे दिया जा रहा है
"खरतरगच्छ में अनेक बड़े-बड़े प्रभावशाली प्राचार्य, बड़े बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े. प्रतिभाशाली पंडित, मुनि और बड़े-बड़े यांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिविद, वैद्यक विशारद प्रादि कर्मठ यतिजन हए जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा के बढ़ाने में बड़ा योग दिया है। सामाजिक और साम्प्रदायिक उत्कर्ष के सिवा खरतरगच्छ के अनुयायियों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश्य भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फलस्वरूप प्राज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक प्रादि विविध विषयों का निरूपण करने वाली छोटी-बड़ी हजारों ग्रंथ कृतियां जैन भंडारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों की यह उपासना न केवल जैन धर्म की दृष्टि से ही महत्त्व वाली है अपितु समूचे भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है।
साहित्योपासना की इष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान् यति, मुनि बड़े उदारचेता मालूम देते हैं। इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र केवल अपने धर्म या समुदाय की बाड़ से बंधा नहीं है। वे जैन और जैनेतर वाङमय का समान भाव से अध्ययन अध्यापन करते रहे हैं।"
जिस देश समाज अथवा धर्म को जीवित रखना है तो दो चीजों की पूरी देख-रेख, सुव्यवस्था व रक्षा करनी पड़ेगी। (१) हमारा खडहरों का वैभव अर्थात् प्रतिमाएं, शिलालेख आदि (२) हमारा जीवित साहित्य-जिसमें हमारे भोज, ताडपत्र, हस्तलिखित व छपे हुए प्रथ प्रादि । परन्तु दुःख के साथ लिखना पड़ता है कि हम जिनकी मर्चना, पूजा, सेवा और भक्ति करते हैं उनकी अमूल्य कृतियों और उनके अप्रतिम चरित्रों को जानने की ओर दृष्टिपात भी नहीं करते। हम यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि हमारे प्राराध्य देवों व पूज्यवर प्राचार्यों ने संसार को जो अतुलनीय दान दिया वह क्या है ? यह जाति के मरणोन्मुखता का ही द्योतक है। वास्तव में इन अमूल्य निधियों की सुरक्षा सुव्यवस्था व सदुपयोग होना बहुत जरूरी है। हमारे समाज का गौरव और महत्त्व तभी ठीक से प्रकाश में पा सकेगा जब हम उसके संग्रह व इतिहास की खोज करें। धर्म में रुचि रखने वाले अन्य सभी महानुभावों से प्रार्थना करूंगा कि वे इस ग्रन्थ को पढ़कर, मनन करके हमें प्रोत्साहिन करें ताकि भविष्य में इस तरह के शोधपूर्ण साहित्य व इतिहास के प्रकाशन की की ओर हम अग्रसरित हो सकें।
शांत एवं मृदुल स्वभावी परमपूज्य श्री साम्यानन्दजी मुनि व जयानन्दजी मुनि म० सा० एवं साध्वी श्री कल्याणश्रीजी का मार्गदर्शन भी हमें बराबर मिलता रहा है। प्राशा है आप मुनिजन भविष्य में भी ऐसे शोधपूर्ण जैन साहित्य के प्रकाशन की प्रेरणा देते रहेंगे।
___ अन्त में, मैं उन सभी महानुभावों का आभार प्रदर्शन करता हूँ जिन्होंने इस ग्रन्थ को छपवाने में सहयोग दिया है।
-राजेन्द्रकुमार श्रीमाल