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प्रकाशकीय 'वल्लभ-भारती' प्रथम खण्ड प्रकाशित करते हुए अति प्रसन्नता अनुभव हो रही है। परमपूज्या विदुषी साध्वी श्री विनयश्रीजी के अन्तिम दाह-संस्कार के समय ही यहां के श्री संघ ने आपकी स्मृति में यह ग्रन्थ छपवाने का निर्णय किया था। उसी निर्णयानुसार श्री विनयश्रीजी महाराज की स्मृति में प्राचार्य श्री जिनरंगसूरिजी के उपाश्रय से यह ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है।
इस ग्रंथ के लेखक महोपाध्याय विनयसागरजी हैं जो कि जैन-साहित्य के जाने-माने विद्वान हैं। यह गौरव की बात है कि विनयसागरजी की इस पुस्तक को हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग-जो कि हमारे देश का श्रेष्ठतम हिन्दी विश्वविद्यालय है-ने अपनी उच्चतम परीक्षा के लिये शोध-प्रबन्ध के रूप में स्वीकार कर, इन्हें साहित्य महोपाध्याय की उपाधि से सम्मानित किया है। महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने अपना जीवन जैन-साहित्य के अन्वेषण, लेखन, प्रकाशन में लगा रखा है। प्राचार्य श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज से प्रेरणा लेकर उन्होंने सतत अध्ययन की ओर उन्मुख होते हए निरंतर ज्ञानोपार्जन किया। इनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित वृत्तमौक्तिक, सनत्कुमारचक्रिचरित महाकाव्य, खडप्रशस्ति, नेमिदूतम्, अरजिनस्तव आदि १६ पुस्तके विभिन्न संस्थाओं से प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से नेमिदूतम् राजस्थान विश्वविद्यालय के M.A. संस्कृत पाठ्यक्रम में और वृत्तमौक्तिक जोधपुर विश्वविद्यालय के M. A. संस्कृत पाठ्यक्रम में रह चुकी हैं । अतः जिस प्रतिभा, मेहनत व विद्वत्ता से इन्होंने प्रस्तुत शोधपूर्ण इतिहास लिखा है, वे वधाई के पात्र हैं ।
- खरतरगच्छीय परंपरा के सर्वप्रथम महानाचार्य जिनेश्वरसूरि जिन्होंने गुजरात के नरेश दुर्लभराज के समक्ष अपहिलपुर पाटण में पञ्चाशरीय पार्श्वनाथ भगवान के बडे मन्दिर में १०६६-७५ के मध्य में स्थानीय ८४ मठपतियों (चैत्यवासी) को शास्त्रार्थ में हराकर खरतर विरुद प्राप्त किया। आपके गुणों से प्रसन्न होकर दुर्लभराज ने कहा, "इस कलिकाल में कठिन और 'खरे' चरित्रनायक साधु पाप ही हैं।" तभी से उनका समुदाय खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हमा। सं० ११६८ में रचित देवभद्रसूरि कृत पार्श्वनाथ चरित्र की प्रशस्ति में (जैसलमेर भंडार में ताडपत्रीय ग्रन्यांक २६५ ) और सं० ११७० की लिखित पट्टावली में जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद मिलने का स्पष्ट उल्लेख है। उन्हीं के पाट पर विराजने वाले प्राचार्य जिनचन्द्रसूरि हुए जिनको अष्टादश नाममाला का पाठ तथा अर्थ सब अच्छी तरह कंठस्थ थे, उन्होंने अठारह हजार श्लोक वाली 'संवेग रंगशाला' की सं० ११२५ में रचना को। यह ग्रन्थ भव्यजीवों के लिये मोक्ष रूपी महल का सोपान है। उनके पाट पर पदासीन होने वाले स्थंभन पार्श्वनाथ प्रभु की सातिशय प्रतिमा प्रगट करने वाले खरतरगच्छाचार्य जिनअभयदेवसूरि हुये, जिन्होंने नवांगों की टीका के अतिरिक्त पंचाशक वृत्ति, उववाई वृत्ति, प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी, षट्स्थान भाष्य, पाराधना कुलक, आगम अष्टोतरी आदि अनेक ग्रन्थों की व 'जयतिहुयण' प्रादि स्तोत्रों की रचना की।
उन्हीं के पाट पर विराजने वाले प्राचार्य श्री जिनवल्लभसूरि हुये, जो कि सब विद्यानों के पारदर्शी, शास्त्र ज्ञान के भंडार व अनेक सिद्धान्तों के ज्ञाता थे। जिनेन्द्र मत प्रचारक श्री हरिभद्रसूरि के अनेकान्तजयपताका आदि ग्रन्थों के अभिज्ञ थे। षट् दर्शन, कन्दली, किरणावली, न्याय, तर्क तथा पाणिनि मादि पाठों व्याकरण के सूत्र इनको कंठस्थ थे। चौरासी नाटक, सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र,