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पार्श्वनाथ को अपना आराध्यतम देव समझते हों तो उनका नाम दे सकते हैं। केवल नाम से हम निश्चित करने में असमर्थ हैं कि स्थापना के पश्चात् टीका-प्रणयन हुआ हो ।
आप केवल जैनागमों के ही उद्भट विद्वान् नहीं थे अपितु तर्क शास्त्र और न्याय - शास्त्र के भी प्रकाण्ड पंडित थे । उस समय के प्रसिद्ध विद्वान् प्रसन्नचन्द्रसूरि वर्द्ध मानसूरि, हरिभद्रसूरि और देवभद्रसूरि ने आप ही के पास विद्याध्ययन किया था और आपको ही वे अपने गुरु रूप में, स्वयं को विनेय रूप में मानते थे । आचार्य जिनवल्लभसूरि ने अपने चित्रकूटीय वीरचैत्य - प्रशस्ति में लिखा है :
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सतर्क न्यायच चचितचतुरगिरः श्री प्रसन्नेन्दुसरि सूरिः श्रीवर्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनोड़ देवभद्रः । इत्याद्याः सर्व विद्यार्णव सकलभुवः सञ्चरिष्णूरुकीत्तिस्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥
में
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य अभयदेव ने लगभग ६२००० श्लोक प्रमाण साहित्य की रचना कर जैनागमों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया । वह सचमुच श्लाघ्यतम प्रयत्न था । आपकी प्रभावशालिता के सम्वन्ध में हम कुछ न लिखकर केवल मुनि जिनविजयजी के शब्द ही यहां उद्धृत करते हैं' :
"जिनेश्वरसूरि के अनुक्रम में शायद तीसरे परन्तु ख्याति और महत्ता की दृष्टि से सर्वप्रथम ऐसे महान् शिष्य श्रीअभयदेवसूरि थे जिन्होंने जैनग्रन्थों में सर्वप्रधान जो एकादशाङ्ग सूत्र हैं उनमें से नव अंग सूत्रों पर सुविशद संस्कृत टीकायें बनाई । अभयदेवाचार्य अपनी इन व्याख्याओं के कारण जैन साहित्याकाश में कल्पान्तस्थायी नक्षत्र के समान सदा प्रकाशित और सदा प्रतिष्ठित रूप में उल्लिखित किये जायेंगे । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के पिछले सभी गच्छ और सभी पक्ष वाले विद्वानों ने अभयदेवसूरि को बड़ी श्रद्धा और सत्यनिष्ठा के साथ एक प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी आचार्य के रूप में स्वीकार किया है और इनके कथनों को पूर्णतया आप्तवाक्य की कोटि में समझा है । अपने समकालीन विद्वत्समाज में भी इनकी प्रतिष्ठा बहुत ऊँची थी । शायद ये अपने गुरु से भी बहुत अधिक आदर के पात्र और श्रद्धा के भाजक बने थे । "
जिनवल्लभसूरि
यद्यपि अभयदेवाचार्य ने अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य एवं विपुल साहित्य से विद्वत्समाज में सदा के लिये अपना स्थान बना लिया और इस कार्य द्वारा श्री वर्धमान और श्री जिनेश्वर द्वारा प्रचारित सुविहित-सरिता को प्रगति प्रदान करने में उन्होंने एक अत्यन्त ठोस कार्य
१. कथाकोष प्रकरण प्रस्तावना पृ० १२
वल्लभ-भारती ]
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