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________________ "सुगृहीतनामधेयः, प्रणतप्राणिसन्दोहवितीर्णशुभभागधेयः, चैत्यवासदोषभासनसिद्धान्ताकर्णनापासितकृतचतुर्गतिसंसारायास जिनभवनवासः, सर्वज्ञशासनोत्तमाङ्गस्थाना (ङ्गा ) दिनवाङ्गवृत्तिकृच्छ्रीमदभयदेवसूरिपादसरोजमूले गृहीतचारित्रोपसम्पत्तिः, करुणासुधातरङ्गिणीतरङ्गरङ्गत्स्वान्तः सुविधि मार्गावभासनप्रादुःष द्विशदकीत्तिकौमुदी निषूदित दिक्सीमन्तिनीवदनध्वान्तः, 'स्वस्योपसर्गमभ्युपगम्यापि विदुषा दुरध्व विध्वंसनमेवाधेयमिति' सत्पुरुषपदवीमदवीयसीं विदधानः, समुज्जितसूरिर्भगवान् श्रीजिनवल्लभसूरि : ' साथ ही इन्हीं जिनवल्लभ गणि रचित सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार (सार्द्धं शतक) प्रकरण पर बृहद्गच्छीय श्रीधनेश्वराचार्य ने सं० १९७१ में टीका रचना की है। (स्मरण रहे कि जिनवल्लभसूरि का स्वर्गवास १९६७ में हुआ था, उसके चार वर्षं पश्चात् ही इसकी रचना हुई है, अर्थात् ग्रन्थकार और टीकाकार दोनों समकालीन आचार्यं हैं) उसमें १५२ वें पद्य की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं: " जिणवल्लहगणि” त्ति जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसङ ग्राहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीत्तिसुधाधव लितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण 'लिखितं' कर्मप्रकृत्यादिगम्भीरशास्त्र ेभ्यः समुद्धत्य दृब्धं जिनवल्लभगणिलिखितम् । ” अर्थात् सार्द्धं शतक के प्रणेता स्थानांगसूत्रादि अंगोपांग और पंचाशक आदि के व्याख्याकार आचार्य अभयदेवसूरि के ही शिष्य थे। इससे भी यह बात अत्यन्त . स्पष्ट हो जाती है कि अभयदेवसूरि इनको उपसम्पदा प्रदान कर अपना शिष्य घोषित कर चुके थे । केवल ये ही नहीं किन्तु धर्मसागरजी के ही पूर्वज तपगच्छीय श्रीमहंससूरि अपने कल्पान्तवाच्य में लिखते हैं: “वाङ्गवृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरि जिण थंभण सेठी नदीनें उपकंठी श्रीपार्वनाथ तणी स्तुति करी, धरणेन्द्र सहायै श्रीपार्श्वबिम्व प्रत्यक्ष कीधो, शरीरतणी कोढ रोग उपशमाव्यो, तच्छिष्य जिनवल्लभसूरि हुआ, चारित्रनिर्मल अनेक ग्रन्थतणौ निर्माण कीधो ।” और इसी प्रकार तपागच्छीय आचार्यं मुनिसुन्दरसूरि स्वप्रणीत त्रिदशतरङ्गिणी गुर्वावली में लिखते हैं: "व्याख्याता भयदेवसूरिरमलप्रज्ञो नवाङ्गयां पुनभव्यानां जिनदत्तसूरिरवदाद् दीक्षां सहस्रस्य तु । प्रौढः श्रीजिनवल्लभो गुरुर भूद् ज्ञानादिलक्ष्म्या पुनग्रन्थान् श्री तिलकश्चकार विविधांश्चन्द्रप्रभाचार्यवत् । " इसी प्रकार राजगच्छ पट्टावली ( विविधगच्छीय पट्टावली संग्रहः, संपा० आचार्यं जिनविजय, पृ० ६४ ) में लिखा है : 4: "श्री उद्योतनसूरयस्तदन्वये श्रीअभयदेवसूरयः, यः स्वीयकुष्ठरोगस्फेटनाय 'जयतिहुअण• ' स्तवेन श्रीस्तम्भनकपार्श्वनाथं स्तुत्वा धरणेन्द्रः प्रकटीकृतः । रोगो निर्गमितः । तथानवानामङ्गसूत्राणां वृत्तयः कृताः । यथा ६४ ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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