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के पास उन्होंने उपसम्पदा (पुनर्दीक्षा ) ग्रहण की थी । धर्मसागरजी से चार शताब्दि पूर्व ही श्री सुमतिगण और जिनपालोपाध्याय (जिनका दीक्षा पर्याय ११२४ से १३११ तक है) ने अपने ग्रन्थों में यह बात स्पष्टतः स्वीकार की है ।
आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य और नवाङ्गटीकाकार श्री अभयदेवसूरि के सतीर्थ्य गुरुभ्राता श्री जिनचन्द्रसूरि ने सं० ११२५ में संवेगरंगशाला नामक कथाग्रन्थ की रचना पूर्ण की जिसकी पुष्पिका में उन्होंने लिखा है:
" इति श्रीमज्जिनचन्द्रसूरिकृता तद्विनेयश्री प्रसन्नचन्द्रसूरिसमभ्यर्थितेन गुणचन्द्रगणि (ना) प्रतिसंस्कृता जिनवल्लभगणिना च संशोधिता, संवेगररङ्गशालाराधना समाप्ता । " अर्थात् श्री जिनचन्द्रसूरिप्रणीत उनके विनेय प्रसन्नचन्द्राचार्य की अभ्यर्थना से गुणचन्द्रमणि (जो आचार्य बनने पर देवभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए) द्वारा प्रतिसंस्कृत और गणि जिनबल्लभ द्वारा संशोधित संवेगरंगशाला पूर्ण हुई । इससे स्पष्ट है कि यदि जिनवल्लभगणि उपसम्पदा ग्रहण कर आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य न बने होते तो अपने सतीर्थ्य अभयदेवसूरि एवं शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य, हरिभद्रसूरि तथा वर्धमानसूरि आदि समर्थ विद्वानों के रहते हुए जिनचन्द्रसूरि एक चैत्यवासी गणि से अपनी कृति का संशोधन कभी नहीं करवाते ।
सचमुच जिनवल्लभमणि यदि अभयदेवसूरि के शिष्य न बने होते और उत्सून प्ररूपक होते तो उन्हें अभयदेवसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् अभवदेवसूरि के पट्टधर होने का सौभाग्य कदापि प्राप्त न होता और वह भी तत्कालीन मच्छ के असाधारण प्रतिभाशाली और गीतार्थप्रवर आचार्य देवभद्रसूरि के हाथ, जिनके सम्बन्ध में सुमतिगणि कहते हैं:
“सत्तकन्यायचर्चाचितचतुरगिरः श्रीप्रसन्नेन्दुसूरिः, सूरिः श्रीवर्द्ध मामो यक्तिपतिहरिभद्रो मुनीड्देवभद्रः । इत्माद्याः सर्वविद्या व सकलभुवः सञ्चरिष्णूरुकोतिः स्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरपरमार जिनो यस्य शिष्याः ||
आचार्य देवभद्रसूरि द्वारा पट्ट पर स्थापित करना स्पष्ट प्रतिपादन करता है कि गणी ने आचार्य अभयदेवसूरिजी के पास में उपसम्पदा ग्रहण करली थी । सं० १९७० में लिखित पट्टावलि में कवि पल्ह भी जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का पट्टधर स्वीकार करते हैं:
सुगुरु जिणेसरसूरि नियमि जिणचंदु सुसंजमि । प्रभयदेउ सव्यंग नारगी, जिणवल्लहु श्रागमि ॥
आचार्य जिनवल्लभसूरि के प्रपौत्र पट्टधर और उ० जिनपाल तथा सुमति गणि के गुरु, आचार्य जिनपतिसूरि स्वरचित संघपट्टक वृत्ति में लिखते हैं कि - चैत्यवास को चतुर्गतिभ्रमणदायक मानकर जिनवल्लभजी ने आचार्य अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा ग्रहण की थी : -
१. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सं० ११२५ से पूर्व ही जिनवल्लभगरिण चैत्यवास का परित्याग कर उपसंपदा ग्रहणपूर्वक नवांगटीककार श्री अभयदेवसूरि के शिष्य बन चुके थे ।
बल्लभ-भारती ]
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