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अध्याय:३
विरोधियों के असफल प्रयत्न
आचार्य जिनवल्लभसूरि के व्यक्तित्व और असाधारण प्रतिभा से उत्पीडित परवर्ती कई लेखकों ने असंभाव्य कल्पनाएँ उत्पन्न करके उनके व्यक्तित्व को दूषित करने का प्रयत्न किया है । इस प्रकार के अवांछनीय दुष्प्रयत्न करने वालों में (साहित्य में शोध करने पर) हमें सर्वप्रथम उपाध्याय धर्मसागरजी के दर्शन होते हैं। धर्मसागरजी जैसे उद्भट विद्वान् और मेधावी लेखक थे वैसे ही यदि शान्ति-प्रिय और शासनप्रेमी होते तो वे निश्चित ही महापुरुषों की कोटि में आते । पर शोक ! उनकी प्रतिभा और विद्वत्ता का उपयोग सत्यशोध एवं शान्तिसंग्रह में न होकर दुराग्रह, कलह-प्रेम और छिद्रान्वेषण में ही हुआ, जिसके कारण तत्कालीन गणनायकों (विजयदानसूरि तथा हीरविजयसूरि जैसों) को बारंबार बोल (आदेश पत्र) निकाल कर उन्हें गच्छ बहिष्कृत करना पड़ा और उनके उत्सूत्र-प्ररूपणामय ग्रन्थों को जलशरण. करवाना पड़ा । अतः ऐसी अवस्था में धर्मसागरजी द्वारा कल्पित विकल्पों का उत्तर देना व्यर्थ ही होता, परन्तु श्री आनन्दसागरसूरि, विजयप्रेमसूरि तथा मानविजय जैसे लोगों ने धर्मसागरजी के चरण-चिह्नों पर आज पुनः चलना प्रारम्भ कर दिया है और आचार्य जिनवल्लभ की धवलकीति पर कीचड़ उछालना प्रारम्भ कर दिया है। अतः उनके आक्षेपों पर पुनः विचार कर लेना और वस्तुस्थिति को विद्वानों के सामने स्पष्ट कर देना आवश्यक हो गया है। सागरजी ने जिनवल्लभगणि के विषय में जो विभिन्न विवाद उठाये हैं उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं:
१. आचार्य अभयदेवसूरि के पास इन्होंने उपसम्पदा ग्रहण नहीं की थी अर्थात् वे उनके शिष्य नहीं बने थे। २. षट् कल्याणक की प्ररूपणा उनकी उत्सूत्र प्ररूपणा थी। ३. उत्सूत्र-प्ररूपणा के कारण वे संघ-बहिष्कृत थे। ४. पिण्डविशुद्धि आदि सैद्धान्तिक ग्रन्थों के प्रणेता जिनवल्लभ नाम के दूसरे आचार्य थे । अतः अब इन चारों विकल्पों पर हम क्रमशः विचार करते हैं:
उपसम्पदा आचार्य जिनवल्लभसूरि के वृत्त को ऊपर देख चुके हैं। मूल में वे कूर्चपुरीय चैत्यवासी जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे और आचार्य अभयदेवसूरि से सैद्धान्तिक वाचना प्राप्त कर, सुविहित साधुओं के आचरण-व्यवहारों को समझकर तथा चैत्यवास त्यागकर अभयदेवाचार्य ६२ ]
[ वस्लभ-भारती