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विस्तृत अध्ययन करना हो, वे संघपट्टक, चर्चरी, उपदेशरसायन, सन्देहदोलावली आदि ग्रन्थों का अध्ययन करें।
- वस्तुतः उस समय आचार्य जिनवल्लभ ने अविधिवाद का जड़-मूल से विनाश न किया होता और व्यावहारिक मर्यादायें स्थापित न की होती तो आज 'जैन-चैत्य" इस रूप में दृष्टिगत न होते ! होते तो केवल अन्य देवालयों की तरह भोगलिप्सा के साधक व व्यक्तिगत सम्पत्ति-रूप ही होते । जैन-साधु-यतिगण आज के रूप में न रहते और रहते तो मठपति या पण्डों के रूप में। अस्तु, वस्तुतः आज जो जैन-चैत्य और जैन-साधु यत्किचित् प्रमाण में भी शास्त्र-सम्मत दिखाई पड़ते हैं वह आचार्य जिनवल्लभ की कृपा का ही फल है।
वल्लभ-भारती ]