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________________ वस्तुतः आचार्यश्री का यह प्रतिपादन शास्त्रीय दृष्टि से कितना महत्त्वपूर्ण है । आचार्यश्री जाति से धर्म का अथवा आलम्बन-भूत साधनों का सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते हैं; वे तो केवल 'भव्यता' का प्रश्रय लेकर गुण-कर्म-विभाग ही स्वीकार करते हैं जो उनकी असीम निर्भीकता का परिचायक है । - इस प्रकार चैत्यों के साथ-साथ साधु-यतिजनों के लिये भी आचार्यश्री ने निम्नलिखित आदेश दिये हैं जो संघपट्टक की ५ वीं कारिका से स्पष्ट हैं:यौशिकभोजनं जिनगृहे वासो वसत्यक्षमा, स्वीकारोऽर्थगृहस्थचैत्य सदनेष्वप्र ेक्षिताद्यासनम् । सावद्याचरितादरः श्रुतपथावज्ञा गुणिद्वेषंधीः, धर्मः कर्महरोत्र चेत्पथि भवेन्मेरुस्तदाब्धौ तरेत् । इस कारिका के अनुसार जो आत्म-साधना की दृष्टि से गृहस्थावास का त्याग कर संयम धारण कर चुके हैं उन्हें अपनी आत्मा को पतन के मार्ग से बचाने के लिये निम्नलिखित कर्त्तव्यों का ध्यान अवश्य रखना चाहिये; अन्यथा इसके अभाव में साधुता कैवल लम्पटता और वेषाभासमात्र रह जाती है । १. सर्वप्रथम अन्तरंग शुद्धि के लिये बाह्य शुद्धि की भी आवश्यकता है। अतः अशुद्ध और स्वयं के लिये निर्मित पिण्ड (भोजन) कदापि ग्रहण नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह षट्कायिक-मर्दन का कारण होने से, उससे अहिंसा महाव्रत का पूर्ण रूपेण नाश सम्भव है । २. चैत्यों में निवास और चैत्यों की सार-संभार की चिन्ता, मोह, ममता और माया - लोभ का केन्द्र होने से आत्मसाधना का घातक है और राजसीवृत्ति का पोषक तथा शिथिलाचार का संवर्धक है । अतः साधकों को इनसे निर्लिप्त ही रहना चाहिये । ३. द्रव्य संग्रह और उपासकों के प्रति ममत्व 'मठपतित्व' का सूचक है । द्रव्य से समस्त अकथ्य कुकृत्यों तथा पापों के होने की भी पूर्ण सम्भावना रहती है और ममत्व से अवर्णनीय कुपथ भी ग्रहण किये जाते हैं । अतः उसका त्याग आवश्यक है । ४. गद्दी आदि का आसन और आस्रव पूर्ण आचरणाओं का त्याग होना चाहिये ; क्योंकि गद्दी आदि 'सुकुमारता' के प्रतिपादक होते-होते 'शैथिल्य' की चरम सीमा तक पहुँचाने वाले हैं और उनके साथ बंधी हुई आस्रव पूर्ण क्रियायें ( यथा - अंगराग, तेल, इत्र का उपयोग, ताम्बूल - भक्षण आदि) कामोद्दीपक साधन होने से व्यक्ति को पतन की ओर ले जाने वाली हैं। ५. अपनी शिथिलता का प्रतिपादन करने के लिये सिद्धान्त-मार्ग की अवज्ञा या उन्मार्ग की प्ररूपणा नहीं करनी चाहिये और न अपनी स्वार्थान्धता के कारण सन्मार्ग प्ररूपक, सुविहित, आत्मसाधक-मुनियों की अवहेलना एवं गुणिजनों के प्रति उपेक्षा ही करनी चाहिये, अन्यथा साधक अपनी वैयक्तिक-साधना को त्याग कर केवल मृग मरीचि के पीछे ही भ्रमण करता रहेगा । इस प्रकार अन्य भी अनेक छोटे-मोटे विधान विधिचैत्य' और 'साधुगणों' के लिये आचार्यश्री ने बनाये थे; वे यहां विस्तार के भय से नहीं दिये जा रहे हैं । जिन्हें इनका ६० ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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