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चुका है, सर्वप्रथम हमें नये चैत्यों के निर्माण में मिलता है । इन चैत्यों में नये विधिपक्ष के विधान को लागू किया गया और उन अवांछनीय तथा अशास्त्रीय कृत्यों का स्पष्ट निषेध कर दिया गया जिनके कारण 'चैत्यबासियों का विधान बदनाम हो चुका था। जिम-मन्दिरों के सम्बन्ध में विधि-पक्ष का जो दृष्टिकोण था उसको झलक उन चैत्यों में उत्कीर्ण श्लोकों से मिलती है जिनमें आचार्य जिनवल्लभसूरि ने प्रतिष्ठा करवाई थी। वे श्लोक निम्नलिखित हैं:
प्रत्रोत्सूत्रजनक्रमो न च न च स्नानं रजन्यां सदा, साधूनां ममताधयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि । जाति-ज्ञाति कदाग्रहो न च न च श्राद्धषु ताम्बूलमित्याज्ञाऽत्रेयमनिधिते विधिकृते श्रीधीरचैत्यालये। इह न लगुडरासः स्त्रीप्रवेशो म रात्री, न च निशि बलि-दीक्षा-स्नात्र-नत्य-प्रतिष्ठाः ।
प्रविशति न च नारी गर्भगेहस्य मध्ये- शुचितमकरणीयं गीतनत्तादिकार्यम् ।१ इन दो पद्यों में देवालयों की व्यवस्था का निम्नलिखित विधान किया गया है:. १. अशास्त्रीय तथा उन्मार्ग में ले जाने वाली समस्त प्रवृत्तियों का त्याग होना चाहिये । भले ही वे 'उपचार' से भक्ति का साधन प्रतीत होती हों, किन्तु जो अन्ततः पतित करने वाली हैं, वे वर्ण्य हैं।
२. रात्रि में प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, स्नान (प्रक्षालन), दीक्षा, बलि (देवतर्पण) आदि श्रेष्ठ कृत्य भी नहीं होने चाहिये; क्योंकि आपाततः ये हिंसा साध्य ही हैं।
३. चैत्यों में 'लगुडरास' (डांडिये, घूमर) अर्थात् रास, रासड़ा आदि जो नरनारियों द्वारा किये जाते हैं वे भी नहीं होने चाहिये ; क्योंकि ये बाह्य भक्ति के साधन होते हुए भी अन्त में केवल चक्षु और श्रोत्र के विकार मात्र ही रह जाते हैं, प्रभु भक्ति के साधन नहीं।
४. चैत्यों में वेश्याओं अथवा नारियों द्वारा नृत्य नहीं होना चाहिये; क्योंकि नारी का नृत्य और उसके अंगोपांगों की चेष्टाएँ आदि केबल विषय-वासना की ही साधक हैं न कि ब्रह्मचर्य की। अतः संयम के स्थान पर 'उत्तेजक' सामग्रियों का 'सात्विकता' की दृष्टि से परिहार होना ही चाहिये।
५. रात्रि के समय नारियों का चैत्य में प्रवेश निषिद्ध है ; क्योंकि यह कभी पतन की 'भूमिका' हो सकती है।
६. ताम्बूल आदि भक्षण करके चैत्य में न जाना चाहिये; क्योंकि इससे नम्रता तथा लघुता का नाश, शृंगारिता का उद्दीपन और गर्व का पोषण होता है।
७. चैत्य केवल आत्मसाधना के आलम्बन है। अतः इनमें जातियों या ज्ञातियों का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है केवल भव्यता का। वह 'भव्य' चाहे किसी भी ज्ञाति या कुल का हो, उसको भक्ति करने का अधिकार है। उससे वह वंचित नहीं होना चाहिये । १. संघपट्टक टीका एवं चर्चरी टीका के आधार पर ।
वल्लभ-भारती ]
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