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________________ उपाध्याय, बड़े बड़े प्रतिभाशाली पण्डित-मुनि और बड़े बड़े मांत्रिक, तान्त्रिक, ज्योतिर्विद्, वैद्यक विशारद आदि कर्मठ यतिजन हुये जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा के बढाने में बड़ा भारी योग दिया। सामाजिक और साम्प्रदायिक उत्कर्ष की प्रवृत्तिके सिवा, खरतरगच्छानुयायी विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा देश्य भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फल स्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों का निरूपण करने वाली छोटी बड़ी सैकड़ों-हजारों ग्रन्थकृतियां जैन भण्डारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों की की हुई यह साहित्योपासना न केवल जैन-धर्म की ही दृष्टि से महत्त्व वाली है, श्रपितु समूचे भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है। साहित्योपासना की दृष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान् यति-मुनि बड़े उदारचेता मालूम देते हैं । इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र केवल अपने धर्म या समुदाय की वाड़ से बद्ध नहीं है । वे जैन और जैनेतर वाङमय का समानभाव से अध्ययन-अध्यापन करते रहे हैं । व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तक के अगणित अजैन ग्रन्थों का उन्होंने बड़े आदर से आकलन किया है और इन विषयों के अनेक अजैन ग्रन्थों पर उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण टीकायें आदि रखकर तत्तद् ग्रन्थों और विषयों के अध्ययन कार्य में बड़ा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है। खरतरगच्छ के गौरव को प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें हम यहां पर बहुत संक्षेप में, केवल सूत्र रूप से, उल्लिखित कर रहे हैं। विशेष रूप से लिखने का यहां अवकाश नहीं है ।" [ पृ० ३] विधिपक्ष आचार्य जिनवल्लभरि ने जैन समाज को जो अमूल्य देन प्रदान की है वह विधिपक्ष के नाम से से अभिहित हुई है। सिद्धान्ततः यह विधिपक्ष आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा प्ररूपित सुविहित पक्ष ही है । परन्तु यह एक नियम सा है कि कोई भी क्रान्ति प्रारम्भ में अवांछनीय ध्वंस पर ही अधिक जोर देती है। अतएव श्री जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवास के विरुद्ध जो आन्दोलन खड़ा किया उसमें वे केवल निषेध, खण्डन और विध्वंस के लिये जितना आवश्यक था उतना ही अपने शास्त्रसम्मत पक्ष को जनता के सम्मुख रख पाये थे; उनको इतना अवसर नहीं मिल पाया था कि वे कोई व्याबहारिक विधान उपस्थित कर पाते और न उस समय यह संभव ही था । इस कमी की पूर्ति जिनवल्लभसूरि ने की । उन्होंने अशास्त्रीय, अकत्तं व्य और अवाँछनीय का केवल खण्डन तथा विध्वंस करके ही सन्तोष न किया; उसके स्थान पर उन्होंने शास्त्रीय, कर्त्तव्य एवं वांछनीय का मण्डन तथा निर्माण करने का भी विशेष प्रयत्न किया । उन्होंने निषेध की अपेक्षा 'विधि' पर अधिक जोर दिया; सम्भक्तः इसीलिए इनके पक्ष का नाम " विधिपक्ष" पड़ा । वस्तुतः क्रान्ति की सफलता कोरे विध्वंस में नहीं, सृजन में है । अव - ata की अवांछनीयता बतलाने या निषेध में नहीं, उसके स्थान पर वाँछनीय के निर्माण या "विधि" में ही निहित है । अतः उनके इस विधि-पक्ष का व्याबहारिक स्वरूप, जैसा कि पहले संकेत किया जा [ वल्लभ-भारती ५८ ]
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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