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गणधर सार्द्ध शतक बृहद्वृत्तिकार सुमति गणि, षष्टिशतकप्रकरणकार नेमिचन्द्र भण्डारी आदि ।
१४वीं शती - प्राकृतद्वयाश्रय टीकाकार पूर्णकलश गणि, अभयकुमार चरितकार उ० चन्द्रतिलक, प्रत्येकबुद्ध चरित्र, श्रावकधर्म विवरण रचयिता उ० लक्ष्मीतिलक, न्यायालङ्कार टिप्पण और संस्कृतद्वयाश्रय महाकाव्य के टीकाकार उपाध्याय अभयतिलक, जिनचन्द्रसूरि प्रगट प्रभावी दादा जिनकुशलसूरि, मुहम्मद तुगलक प्रतिबोधक विविधतीर्थंकल्प आदि अनेकों ग्रन्थों के निर्माता जिनप्रभसूरि, पडावश्यक बालावबोधकार तरुणप्रभाचार्य आदि ।
१५ वीं - गौतमरासकार उ० विनयप्रभ, अंजनासुन्दरी चरित्रकार साध्वी गुणसमृद्धि महत्तरा, विज्ञप्ति त्रिवेणी आदि ग्रन्थों के निर्मापक उ० जयसागर, पंच महाकाव्यों के प्रसिद्ध टीकाकार उ० चारित्रवर्धन, नेमिनाथ महाकाव्यकार कीर्तिरत्नसूरि, जैसलमेर, पाटण, खंभात आदि प्रसिद्ध भंडारों के संस्थापक तथा सहस्रों मूर्तियों के प्रतिष्ठापक आचार्य जिनभद्रसूरि आदि । १६ वीं – अनेक ग्रन्थों के बालावबोधकार उ० मेरुसुन्दर, आचाराङ्ग दीपिकाकार जिनहंससूरि सूत्रकृताङ्ग दीपिकाकार उ० साधुरंग, महोपाध्याय सिद्धान्तरुचि, कमलसंयमोपाध्याय आदि ।
१७ वीं -सम्राट् अकबर प्रतिवोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि उ० साधुकीर्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीकाकार महोपाध्याय पुण्यसागर, शतदलकमलकाव्यकार उ० सहजकीर्ति, कर्मचन्द्रवंशप्रवंधकार महो० जयसोम, अनेकग्रन्थ प्रणेता उ० गुणविनय, सहस्रदल कमलगर्भित अरजिनस्तव चित्रकाव्य के प्रणेता उ० श्रीवल्लभ, उ० सूरचन्द्र, अष्टलक्षी आदि सैकड़ों ग्रन्थों के प्रणेता उ० समयसुन्दर, चिन्तामणि नव्यन्याय के अध्येता वादी हर्षनन्दन, नैषधकाव्य टीकाकार जिऩराजसूरि, प्रश्नोत्तरशतं आदि के प्रणेता उ० विनयसागर अदि ।
"१८ वीं - प्रसिद्ध भाषा साहित्य निर्मापक जिनहर्ष, कल्पसूत्र उत्तराध्ययन सूत्रादि के टीकाकार लक्ष्मीवल्लभ, मस्तयोगी आनन्दघन, धर्मवर्द्धन, अध्यात्मज्ञानी उ० देवचन्द्र गौतमी महाकाव्य प्रणेता उ० रामविजय (रूपचन्द्र ), आदि ।
१९ वीं --क्रियोद्धारक उ० क्षमाकल्याण, उ० शिवचन्द्र चारित्रनंदी, ज्ञातासूत्र टीकाकार कस्तूरचन्द्र, मस्तयोगी ज्ञानसार आदि ।
२० वीं--योगी चिदानंदजी, आबू तीर्थोद्धारक ऋद्धिसागर, बालचन्द्राचार्य, स्याद्वादानुभव रत्नाकरादि प्रणेता चिदानंदजी बंबई के सर्वप्रथम उपदेशक मुनि मोहनलालजी, कृपाचन्द्रसूरि जिनऋद्धिसूरि, अप्रतिहतवादी जिनमणिसागरसूरि, कवीन्द्रसागरसूरि उ० लब्धिमुनि, . बुद्धिमुनि, इतिहासविद् कान्तिसागर आदि । प्रस्तुत ग्रन्थ का लेखक भी इसी परम्परा का है । इस वल्लभीय परंपरा में आज भी चार शाखाएं (बृहत्, लघुआचार्य, मंडोवरा, लख3) विद्यमान हैं और उनके श्रीपूज्य तथा आद्यपक्षीय पिप्पलक आदि के यतिगण भी विद्यमान हैं । साधुओं की भी तीन शाखाएं (क्षमाकल्याण, जिनकृपाचन्द्रसूरि, मोहनलालजी परंपरा ) मौजूद हैं, जिनमें आज भी अनेक विद्वान् साधुगण एवं साध्वीगण हैं और साहित्योपासना कर रहे हैं । इस वल्लभीय खरतरगच्छ परम्परा के आचार्यों की साहित्यसेवा का उल्लेख करते हुए मुनि जिनविजयजी कथाकोष प्रकरण की प्रस्तावना में लिखते हैं:
“इस खरतरगच्छ में उसके बाद अनेक बड़े बड़े प्रभावशाली आचार्य, बड़े बड़े विद्या
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वल्लभ-भारती ]