________________
स्तुवेऽहमेवाभयदेवसूरि, विनिर्मिता येन नवाङ्गवृत्तिः । श्रुतश्रियं प्रोद्वहतो. महर्षेर्बभौ नवाङ्गा वरवेदिकेव ॥४८॥
तच्छिष्याः पिण्डविशद्वयादिप्रकरणकारकाः श्रीजिनवल्लभसरयः।
इन अवतरणों से सिद्ध है कि गणिजी नवाङ्गीवृत्तिकारक आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य थे। उपसम्पदा के बिना शिष्यत्व स्वीकृत नहीं हो सकता तो पट्टधर आचार्यत्व की कल्पना कल्पना मात्र ही रह जाती है। अतः यह मानना ही होगा कि जिनवल्लभगणि ने चैत्यवास त्याग कर अभयदेवसूरि से उपसम्पदा ग्रहण की थी। इसीलिये युगप्रधान जिनदत्तसूरि जैसे समर्थ विद्वान् स्थान-स्थान पर जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का शिष्य कहते हैं ।
__केवल यही नहीं, किन्तु आचार्य जिनवल्लभसूरि स्वयं स्वप्रणीत श्रावकव्रतकुलक में अपने को आचार्य अभयदेवसूरि का शिष्य कहते हैं:
___ जुगपवरागमसिरि-अभयदेवमुरिणवइपमाणसुभ्देरण ।
जिणवल्लहरिणरणा गिहि-वयाइ लिहियाइ मुद्धरण ॥ २८॥ इतना ही नहीं किन्तु अष्टसप्ततिका अपरनाम वीर-चैत्य-प्रशस्ति में तो वे अपने को अभयदेवसूरि के पास श्रु ताध्ययन करने और उपसम्पदा ग्रहण करने का उल्लेख भी करते हैं:
• लोकाच्यकूर्चपुरगच्छमहाधनोत्थ-मुक्ताफलोज्ज्वः लजिनेश्वरसूरिशिष्यः । - प्राप्तः प्रथां भुवि गणिजिनवल्लभोऽत्र, तस्योपसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च ॥५२।।
साथ ही स्वप्रणीत प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतं काव्य में जहां आचार्य अभयदेवसूरि को "के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रु ता विश्र ताः” इस प्रश्न के उत्तर में "श्रीमदभयदेवाचार्याः" का उल्लेख किया है, उसकी अवचुरि करते हुए तपागच्छनायक श्रीसोमसुन्दरसूरि के शिष्य ने (सं० १४८६ में) 'सद्गुरवः' के स्थान पर 'मद्गुरवः' पाठ स्वीकार किया है:
- "श्री पाके इति वचानात् श्रीधातुः । ममाभयं ददातीति मदभयदस्तस्मिन् यो मदभयं ददातीति, तत्र मम मनः प्रीतियुक्त भवतीत्यभिप्रायः ।" इस प्रकार आचार्य जिनवल्लभ के स्वयं रचित ग्रन्थों के प्रमाणों से सन्देह का अवकाश ही नहीं रह पाता।
षटकल्याणाक शास्त्रीय मतानुसार प्रत्येक तीर्थंकर के च्यवन,' जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और १. इस प्रथम कल्याणक का नाम एक च्यवन ही नहीं, किंतु अवतरण गर्भ गर्भाधान आदि अनेक नाम भी
आते हैं। जैसे कि प्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण बृहत्संग्रहणी की--"अवयरणजम्मनिक्खमणणाणनिव्वाण पंच कल्लाणे । तित्थयराएं नियमा, करंति सेसेसु खित्तेसु ॥" गाथा में 'अवतरण' कहते हैं । आचार्य हरिभद्रसूरि पंचाशक की-'गब्भे जम्मे य तहा. रिणक्खमणे चेव गाणनिव्वाणे । भुवगुरूणं जिणाणं, कल्लाणा होंति णायब्वा ॥३१ ।" गाथा में गर्भकल्याणक और इसकी टीका में नवाङ्गटीकाकार श्री अभयदेवसूरि इसे गर्भाधान कहते हैं ।
इन निर्दिष्ट प्रमाणों से निश्चित यह हया कि देवलोक से च्यवनमात्र को ही नहीं अपितु च्यवकर माता की कुक्षि में तीर्थंकर गर्भतया उत्पन्न होना कल्याणक है । इसी कारण शास्त्रकार स्थान-स्थान पर लिखते हैं कि "चुए चइता गब्भं वक्कते" अर्थात् देवलोक से च्यवे और च्यवकर माता की कुक्षि में गर्भतया उत्पन्न हुए।
वल्लभ-भारती ]
[६५