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________________ निर्वाण ये पांच कल्याणक अनिवार्य रूप से होते ही हैं । परन्तु श्रमण भगवान् महावीर के इन पांच कल्याणकों के अतिरिक्त एक छठा कल्याणक और हुआ, वह था गर्भापहरण ।' यह घटना इस प्रकार वर्णित मिलती है: श्रमण भगवान् महावीर का जीव दशम देवलोक से च्युत होकर आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिवस माहणकुण्डग्राम के निवासी कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त विप्र की पत्नी जालन्धरा गोत्रीय देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। देवानन्दा ने चौदह स्वप्न देखे । ८२ दिवस पश्चात् देवलोकस्थ सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से भगवान् को देवानन्दा के गर्भ में स्थित देखकर प्रसन्न होता है और श्रद्धापूर्वक 'नमुत्थुणं' आदि से स्तुति करता है। पश्चात् वह विचार करता है कि "तीर्थंकर का जीव किसी अशुभ कर्मोदय के कारण श्रेष्ठ क्षत्रियवंशों का त्यागकर विप्रादि कुलों में उत्पन्न हो सकता है, परन्तु उस निम्न कुल की माता की योनि से उनका जन्म कदापि नहीं होता। मैं इन्द्र हूँ । भगवान् का भक्त हूँ । अतः मेरा जीताचार (कर्त्तव्य) है कि मैं गर्भसंक्रमण (अपहरण कर अन्य स्थान पर प्रक्षेप) करवाऊं।" इस प्रकार विचार कर अपना आज्ञाकारी हरिणगमेषी नामक देव को बुलाता है और आदेश देता है कि "तुम जाकर देवानन्दा के गर्भ में स्थित भगवान् के जीव को लेकर क्षत्रियकुण्ड के अधिपति ज्ञातवंशीय काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थ नरेश की पत्नी वाशिष्ठ गोत्रीय त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में स्थापित करो और त्रिशला की कक्षि में स्थित पुत्री के गर्भ को देवानन्दा ब्राह्मणी के उदर में स्थापित करो।" आदेश प्राप्त कर हरिणगमेषी देव आता है और आश्विन कृष्णा त्रयोदशी की मध्यरात्रि में यह कार्य पूर्ण करता है। इसी रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी १४. स्वप्न देखती है। राजा सिद्धार्थ से निवेदन करती है। नृपति सिद्धार्थ भी स्वप्नलक्षण पाठकों को बुलाकर स्वप्न फल पूछता है। तब मालूम होता है कि तीर्थंकर अथवा चक्रवर्ती का जीव त्रिशला की रत्नमयी कुक्षि से जन्म ग्रहण करेगा। उसी दिवस से धनद के आज्ञाकारी सब प्रकार के वस्तुओं की सिद्धार्थ के घर में वृद्धि करते हैं। इसी गर्भापहरण को मंगलस्वरूप मानकर सब ही शास्त्रकारों ने इसे कल्याणक के रूप में स्वीकार किया है। किन्तु अपनी आभिनिवेशिक मान्यता के वशीभूत होकर, शास्त्रीय मान्यता एवं परंपरा का त्याग कर, कई इस कल्याणक को कल्याणक के रूप में स्वीकार नहीं करते । उनकी मान्यता के अनुसार इसमें निम्नलिखित बाधाएं हैं: १. जैसे च्यवन शब्द च्यवकर माता की कुक्षि में गर्भतया उत्पन्न होने का द्योतक है वैसे ही गर्भापहार शब्द हरण मात्र का नहीं, किंतु देवानन्दा की कुक्षि से अपहरण द्वारा त्रिशला की कुक्षि में स्थापन करने रूप अर्थ का भी द्योतक है। यही बात तपागच्छीय उपाध्याय जयविजयजी कल्पदीपिका में लिखते हैं:- "गर्भस्य-श्रीवर्द्ध मानरूपस्य हरणं-त्रिशलाकुक्षौ सङ कामणं-गर्भहरणं" । इस तरह त्रिशला की कुक्षि में गर्भाधानरूप गर्भहरण-गर्भापहार को कल्याणक न मानना किसी प्रकार युक्तियुक्त नहीं। यदि उपरोक्त व्याख्योपेत गर्भापहार कल्याणक मानने योग्य न हो तो कल्पसूत्रोक्त "एए चउदस महासूमिणे सव्वा पासेइ तित्थयरमाया” इस नियमानुसार और पंचाशकोक्त कल्याणक के "कल्लाणफला य जीवाणं" इस लक्षण से युक्त गर्भाधान कल्याणक सूचक १४ स्वप्न त्रिशला माता न देखती। [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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