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________________ hi भूल जाते हैं कि लेखक ने पूर्व में लिखा है - "पादोन पौरुषी व्यतीत होने पर पडिलेहन करू' का आदेश लेकर, भण्डोपकरण अर्थात् थाली, कटोरा आदि पात्रों की प्रमार्जना करे । " उपधान-तप आदि बड़ी तपस्याओं में ही भोजन पात्र रखे जाते हैं, सामान्य एक दिवस के पौषध में नहीं । इसीलिये तो लेखक को पुनः “जो पुण आहारपोसही देसओ" शब्द लिखने पड़ े । अतः किसी लेखक के लिखित पूर्वापर वाक्यों को छोड़कर स्वप्रयोजनीय शब्दों को ग्रहण करना और अपने झूठे मत का प्रतिपादन करना क्या विज्ञों के लिये योग्य कहा जा सकता है ? क्या इन शब्दों से कहीं भी स्पष्ट है कि पर्वतिथि के अतिरिक्त दिवसों में भी पौषध में भोजन करना चाहिये ? पौषधती राग और द्वेष की परिणति से रहित होकर शास्त्रीय नियमानुसार अपने घर पर अथवा पूर्व निश्चित स्थान पर जाकर भोजन करे। भोजन के लिये एकादश प्रतिमाधारक व्यक्तियों को छोड़कर श्रमण की तरह भ्रमण न करे ; क्योंकि वह धर्म की लघुता करने वाला हैं। तथा पिण्ड - विशुद्धि का ज्ञान न होने से एवं उपयोग का अभाव होने से शास्त्रों में इसका पूर्णतया निषेध किया गया है । सन्ध्याकालीन विधि पूर्ण होने पर रात्रि संस्तारक की विधि करके अनित्यादि भावनाओं द्वारा संसार, लक्ष्मी, यौवन तथा गर्व की नश्वरता पर विचार करता हुआ, सम्पूर्ण ऐहिक वस्तुओं का त्याग कर जिनेश्वर का शरण स्वीकार कर शयन करे। रात्रि के अन्तिम प्रहर में 'उठकर ८ प्रहर पूर्ण हो गये हों तो सामायिक ग्रहण कर स्वाध्याय ध्यान करे । पश्चात् प्राभातिक प्रतिक्रमण करे, प्रतिलेखन करे। पौषध पारने की इच्छा हो तो त्रिवि - योग से अनुष्ठान में अतिचार लगा हो उसकी चिन्तवना करता हुआ 'भयवं दसण्णभद्दो' के पाठ से पौषध की विधि पूर्ण करे । तदनन्तर उपासक का यह नियम है कि पूज्य श्रमणों को आहार भोजन का दान देकर स्वयं भोजन करे अन्यथा दोष का हेतु है । अतः साधु समीप जाकर विनय विवेक पूर्व क उनको अपने साथ लेकर अपने घर पर आवे और भक्ति-पूर्वक उन्हें भोजन का दान देकर पारणा करे। यदि वहां सुविहित साधु न हो तो देश कालोचित कर्त्तव्य करे तथा मन में यह विचार करता हुआ कि गीतार्थ साधु होते तो मेरा संसार से निस्तार हो जाता तथा मेरा जीवन कृतार्थ हो जाता: संविग्गा सोवएसा गमनयनिउरगा खित्तकालागुरूवागुट्टाणा सुद्धचित्ता परसमयविऊ मच्छरुच्छेयदच्छा । सुत्तत्तत्ती जुयवयणहयातुच्छ मिच्छत्तवाया, सम्म साहू मे एज्ज गेहे जह कवि तोऽहं कयत्थो भविज्जा ।। अन्त में इसका मोक्षफल दिखलाते हुए कवि स्वयं का नाम सूचित करता हुआ • सुविहित पथ की पौषधविधि का उपसंहार करता है । ७. प्रतिक्रमण - समाचारी कवि देवेन्द्रवृन्दवन्दित श्रीमहावीर को नमस्कार कर प्रतिक्रमण - समाचार प्रकट करता है । द्वितीय पद्य में पंचविध आचार की विशुद्धि के लिये साधु और श्रावक को सर्वदा गुरु ४] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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