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________________ के साथ प्रतिक्रमण का विधान करता है। प्रतिक्रमण पांच प्रकार के होते हैं-१. रात्रि २. देवसिकी, ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक और ५. सांवत्सरिक । पद्य ३ से २४ तक कवि देवसिक प्रतिक्रमण की विधि का वर्णन करता है और पद्य २५-३३ में रात्रि प्रतिक्रमण का। पद्य ३५-३६ तक में अवशिष्ट तीनों प्रतिक्रमणों की विशिष्ट विधि का उल्लेख करता हआ पद्य ४० में अपना नाम देकर उपसंहार करता है। कवि ने देवसिक प्रतिक्रमण का विधान 'देवसिय प्रायश्चित कायोत्सर्ग' तक ही दिया है तथा रात्रि-प्रतिक्रमण का अन्तिम देववन्दन तक । स्पष्ट है कि वार्तमानिकी विशेष क्रियायें गुरु-परम्परा मात्र की ही बोधक हैं। ...... ८. द्वादशकुलक कवि ने अपना जीवन केवल वैधानिक-चर्चाओं और प्रौढ-साहित्यिक रचनाओं में ही नहीं बिताया है। वह धर्म प्रचार का लक्ष्य भी रखता है। इसीलिये उसने द्वादशकल और धर्मशिक्षा प्रभृति औपदेशिक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। सर्वत्र स्थलों में स्वयं का विचरण असंभव है, स्वीकार कर अन्य प्रदेशों में उपदेशों के साथ-साथ वैधानिक सुविहित-पथ . का भी प्रचार हो इस दृष्टि को लक्ष्य में रख कर, गणदेव नामक उपासक को साहित्य-प्रचारक बना कर, प्रस्तुत ग्रन्थ-निर्माण कर, बागड देश में प्रचारार्थ भेजा। जैसा कि जिनपालोपाध्याय कहते हैं: धर्मोपदेशकुलकाङ्कितलेखसारः, श्राद्ध न बन्धुरधिया गणदेवनाम्ना । म. प्राबोधयत् सकलवाग्जदेशलोक, सूर्योऽरुणेन कमल किरणेरिव स्वैः ॥ .. । (द्वादशकुलक वृत्ति मं० १०) इस ग्रन्थ में कुल १२ कुलक हैं और ये सभी कुलक परस्पर सम्बद्ध होते हुए भी मौलिक काव्य की तरह स्वतंत्र भी हैं। इसीलिये कवि ने इस ग्रन्थ का नाम भी द्वादशकुलक रखा है। प्रस्तुत ग्रन्थ औपदेशिक होने पर भी कवि ने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से, लाक्षणिक दृष्टि से लिख कर इसे प्रासाद एवं माधुर्य गुणमय काव्य का रूप प्रदान कर दिया है। इसका पठन करने पर पाठकों को उपदेश के साथ-साथ काव्य-गरिमा का आस्वादन भी होता है। - प्रत्येक कुलक भिन्न-भिन्न छन्दों में है और पद्य संख्या भी सब की पृथक्-पृथक् है जिसका वर्गीकरण निम्न प्रकार है:कुलक संख्या पद्य संख्या छन्द १-२० उपजाति; २१वां मालिनी १-२० आर्या; २१वां मालिनी १, ३- ११, १३-१५ शार्दूलविक्रीडित; २, १२ स्रग्धरा तथा १६वां आर्या २५. १-२५ आर्या १, २, ५-११, १३-१६, १८-२३, २६-२८, वल्लभ-भारती] [ ६५ ہم سب » .३१ *
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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