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________________ गाथा १२ में 'बाड़मेरु माणं' शब्द से उस समय में प्रचलित वस्तु परिमाण - तौल सूचक का प्रयोग किया है । यह प्रयोग ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। संभव है उस समय राजस्थान प्रदेश में बाहड़मेरो मान का प्रचार होगा । ६. पौषधविधि प्रकरण । far क्ष के अनुयायी श्रमण वर्ग के लिये नूतन आचार-ग्रन्थ की कोई आवश्यकता नहीं थी; क्योंकि आचार -ग्रन्थ के आगम मौजूद थे अतः उपासकों को लक्ष्य में रखकर पौषधविधि प्रकरण एवं प्रतिक्रमण- समाचारी नामक दोनों ग्रन्थों की रचना की गई है । इसीलिये कवि को मगलाचरण में यह वस्तु स्पष्ट करनी पड़ी है। कवि कहता है कि दसविध यतिधर्म का प्रकाशन करने वाले जिनेश्वर देवों ने पौषधविधान की उपासकों के लिये प्ररूपणा की है । जो उपासक संसार से विरत होकर आत्मिक सुख का अनुभव करना चाहता है तथा जो व्रत, प्रतिमा, सन्ध्याविधि, पूजा इत्यादि श्रावकोय धर्मकृत्यों द्वारा कल्याण पथ पर अग्रसर होना चाहता है उसे चतुर्दशी, अष्टमी, पर्युषणादि पर्व -दिवसों में साधु के पास अथवा पौषधशाला या एकान्त गृहप्रदेश में पौषध अवश्य करना चाहिये । तदनन्तरं पौषध की समग्र विधि का आद्योपान्त वर्णन किया गया है जो आज भी खरतरगच्छ समाज में प्रसिद्ध एवं प्रचलित है । इसलिये इसका वर्णन न कर इसमें विशिष्ट विवेचनीय विषयों का उल्लेख कर रहा हूँ । पौषध दण्डक (पूत्रपाठ ) तथा सामायिक दण्डक का शास्त्रीय विवेचन करता हुआ afa त्रिविध-त्रिविध प्रत्याख्यान का अनेक भांगों द्वारा स्थापना भी करता है जो पठनीय है । इसी प्रसंग में एक मत का उल्लेख है कि साधुओं के साथ श्रावकों को प्रतिक्रमण करना योग्य नहीं है। इस मत का शास्त्रीय प्रमाणों तथा गीतार्थ- परम्परा द्वारा खडन कर यह स्थापना है कि श्रावकों को साधुगण के साथ प्रतिक्रमण करना चाहिये । पौषधव्रत-धारी सभा के सन्मुख प्रवचन ( व्याख्यान ) दे या नहीं ? इस प्रसंग को उठाकर निशीथ आदि आगमिक ग्रन्थों के उद्धरण के साथ यह प्रतिपादन किया है कि सभा में गीतार्थ श्रमणों को ही प्रवचन देने का अधिकार है । जहाँ सामान्य साधुओं के लिये भी सभा में प्रबचन देने का प्रतिबन्ध वहां उपासकों का स्थान ही कहां आ सकता है ? हां, वह पौषधव्रतधारी गीतार्थ श्रमण के अभाव में वैसे उपदेश दे सकता है किन्तु सभा के सन्मुख प्रावचनिक पद्धति से नहीं । जो इस आज्ञा-धर्म का उल्लंघन करता है उसके लिये कवि कहता fe वह अनर्थभाषी और शासन - विराधक है । चैत्य में मध्याह्न-काल का देववन्दन करने के पश्चात् यदि उपासक 'आहार पोसही' हो तो जो प्रत्याख्यान एकासन, निवी, अथवा आयम्बिल का किया हो, वह पूर्ण करे । यहां 'आहारपोसही' शब्द पर कई विपक्षियों ने खरतरगच्छ की वैधानिक परम्परा को अवैधानिक ठहराने के लिये सेन प्रश्न - " पौषधविधिप्रकरणे श्राद्धानां पौषधमध्ये जेमनाक्षारदर्शनात् " ( पृ० ४) का प्रमाण कर वातावरण को दूषित करने का जो प्रयत्न किया है वह वस्तुत: गर्हणीय है । ये वल्लभ-भारती ] [ ६३
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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