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देव
भगवान् महावीर के २७ भव १. नयसार कणवारी, प्रतिष्ठान | २. प्रथम देवलोक ३. मरीचि, भरतपुत्र अयोध्या | ४. पंचम देवलोक ब्राह्मण
देवलोक
११.
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१३.
१५.
१८.
• २०.
१७. विश्वभूति राजगृही १६. त्रिपृष्ठ वासुदेब पोतनपुर २१. सिंह २३. प्रियमित्र चक्रवर्ती मूकानगरी २५. नन्दन छत्राग्रापुरी २७. महावीर देव
२२. २४. २६.
सप्तम नरक चतुर्थ नरक सप्तम देवलोक देव दसम देवलोक देव
प्रत्येक चरित्र को पृथक्-पृथक् विशेषतायें:
आदिनाथ चरित्रः-प्रथम और द्वितीय पद्य में भगवान् आदिनाथ को नमस्कार कर 'चरित' कहने की कवि प्रतिज्ञा करता है और अन्तिम २५ वें पद्य में कवि अपना नाम देता हुआ परमपद प्राप्ति की अभिलाषा प्रकट करता है। तृतीय पद्य में पूर्वभव के वर्णन में धन नामक सार्थवाह मुनि को दान देने के प्रताप से सम्यक्त्व (बोधिलाभ) प्राप्त करता है। पांचवें पद्य में साधु की चिकित्सा से वह 'चक्रवर्ती नाम कर्म उपार्जन करता है। छठे पद्य में वोसस्थानक सेवन से तीर्थंकर नाम कर्म उपाजित करता है और १२ वें पद्य में इक्ष्वाकुवंश की उत्पत्ति का कारण बताया है ।
शान्तिनाथ चरित्र:-प्रथम और द्वित्तीय पद्य में १६ वें तीर्थंकर और पंचम चक्रवर्ती भगवान् शान्तिनाथ को नमस्कार कर शान्तिनाथ का संक्षेप में जीवन चरित कहने की प्रतिज्ञा है और अन्तिम पद्य में मोक्षपद की याचना की गई है। १२ वें पद्य में 'गुप्तगर्भ' का उल्लेख है और पद्य १७ से २२ तक में चक्रवर्ति ऋद्धि का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
१. वीसस्थानक निम्नलिखित हैं -अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, प्राचार्य, स्थविर, उपाध्याय, साधु, ज्ञान, दर्शन, विनय, चारित्र, ब्रह्मचर्य, क्रिया, तप, सुपात्रदान, वैयावृत्त्य, समाधि, अपूर्वज्ञानग्रहण, श्रुतभक्ति, प्रवचनप्रभावना।
वल्लभ-भारती ]
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