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चन्द्रदूत काव्य देखने से कवि-प्रतिभा का हमें अवश्य ही ज्ञान होता है। यह काव्य मेघदूत की पादपूर्ति-रूप में बनाया गया है। पादपूर्ति रूप होता हुआ भी यह एक मौलिक काव्य का सौन्दर्य रखता है।
प्रतिक्रमण समाचारी का अक्षरार्थ-स्तबक (टब्बा) सामान्यतया सुन्दर है किन्तु इस स्तबक से कोई व्युत्पत्ति अथवा विचारणा शक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।
. जिनपालोपाध्याय युगप्रवरागम श्रीजिनपतिसूरि के आप शिष्य के। सं० १२२५ में पुष्कर में स्वयं आचार्यश्री नै आपको दीक्षा प्रदान की थी। १२६६ में जाबालिपुर (जालोर) विधिचैत्य में आचार्यश्री ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था। सं० १२७३ में बृहद्वार में आचार्य जिनपतिसूरि की आज्ञा से महाराज पृथ्वीचन्द्र की अध्यक्षता में पं० मनोदानन्द को "जैनषड्दर्शन से बाह्य हैं" विषय पर शास्त्रार्थ कर विजयपत्र प्राप्त किया था। सं० १२८८ आश्विन सुदि १० को पालनपुर में राजपुत्र श्री जसिंह के सानिध्य में साधु भुवनपाल ने स्तूप पर ध्वजारोहण प्रतिष्ठा का महामहोत्सव आपके कर-कमलों से कराया था। सं० १३११ पालनपुर में आपका स्वर्गवास हुआ था।
आप न्यायशास्त्र, अलङ्कार, साहित्य-शास्त्र तथा चित्रकाव्य के मर्मज्ञ थे। आपकी प्रतिभा का यशोगान करते हुए आपके ही सतीर्थ्य श्री सुमतिगणि गणधरसार्धशतक बृहद्वृत्ति में लिखते हैं:
नानातर्फावतर्ककर्कशलसद्वारणीकृपारणीस्फुरत्तेजःप्रौढतरप्रहारघटनानिष्पिष्टवादिवजाः । श्रीजैनागमतत्त्वभावितधियः प्रीतिप्रसन्नाननाः,
सन्तु श्रीजिनपाल इत्यलमुपाध्यायाः क्षितौ विश्रुताः ॥ जैनागमों के भी आप पूर्णनिष्णात थे । आपने अभयकुमार-चरित्रकार चन्द्रतिलको. पाध्याय, सन्देहदोलावलीवृत्तिकार श्री प्रबोधचन्द्रगणि आदि प्रतिभा-सम्पन्न विद्वानों को शास्त्रों का अभ्यास करवाया था। इसीलिये वे अपने ग्रन्थों में आपको गुरु-रूप में स्वीकार करते हैं:
सम्यगध्याप्य निष्पाद्य यश्चान्तेवासिनो बहून् । चक्रे कुम्भध्वजारोपं गच्छप्रासादमूर्धान ॥३८॥
१. इस शास्त्रार्थ का उल्लेख आपने स्वयं ने स्वप्रणीत युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि पृ. ४४-४६ में बड़े विस्तार से दिया है और इसी का उल्लेख उ. चन्द्रतिलक अभयकुमार चरित्र में भी करते हैं:
. भूयो भूमिभुजङ्गसंसदि मनोदानन्दविप्रं घनाहङ्कारोद्ध रकन्धरं सुविदुरं पत्रावलम्बप्रदम् । जित्वा वादमहोत्सवे पुरि बृहद्वारे प्रदोच्चकयुक्तीः सङ्घयुतं गुरू जिनपति यस्तोषयामासिवान् ॥३७॥
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[ वल्लभ-भारती