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संयोज्य वृत्तिणि-सामाचारी विलोक्य सदृष्ट्या । श्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायः शास्त्रधौरेयः ॥२१॥ श्रीपाठकधनराजः सुशोधिता साधुकोत्तिगणिनाऽपि । विबुधैः प्रवाच्यमाना नन्दतु यावज्जिनेन्द्रमतम् ॥२२॥ प्रत्यक्षरगणनेन त्रिसहस्रीपञ्चशतकसयुक्ता। चतुरधिकः पञ्चाशत्श्लोकः प्रत्यक्षतः प्रकटा ॥२३॥
जिनवल्लभ के अन्य ग्रन्थों पर तो तत्काल ही अनेक वृत्तियों की रचना हो चुकी थी। किन्तु इस मूल प्रकरण की रचना होने के ५०० वष तक भी इस पर कोई टीका, दीपिका, पञ्जिका और अवचूरि आदि की रचना हई हो ज्ञात नहीं होती। सर्वप्रथम १७ वीं शती में ही आवश्यक सूत्र सम्बन्धी समग्र साहित्य (जिसमें वृत्ति, चूणि इत्यादि का भी समावेश है) का आलोडन कर, सुन्दर वृत्ति का निर्माण कर आपने विधिपक्ष (खरतरगच्छ) की समाचारी को सुस्थिर रखने का जो प्रयत्न किया है, वह वस्तुतः श्लाघ्य है।
इस टीका में स्थान-स्थान पर आगमिक तथा प्राकरणिक उद्धरणों की बहुलता दृष्टिगोचर होती है। इसकी भाषा अत्यन्त ही परिमार्जित है और विवेच्य विषय है प्रवाह
पूर्ण।
इस टीका का प्रकाशन उपाध्याय सुखसागरजी कर रहें हैं।
वाचनाचार्य विमलकीर्ति प्रतिक्रमण-समाचारी के स्तबककार श्री विमलकीत्ति महोपाध्याय श्री साधुकीत्ति गणि के प्रशिष्य तथा उपाध्याय श्री विमलतिलक के शिष्य थे। जातितः आप हुम्बडगोत्रीय थे और आपके माता-पिता का नाम था श्रीचन्द्र शाह और गवरादेवी । सं० १६५४ माह शुक्ला ७ के दिवस "उक्तिरत्नाकर, धातुरत्नाकर, शब्दरत्नाकर' आदि अनेक ग्रन्थों के प्रणेता श्री साधुसुन्दर उपाध्याय ने आपको दीक्षा प्रदान की थी। आचार्य जिनराजसूरि जी ने सं० १६७४ के पश्चात् आपको 'वाचक' पद प्रदान किया था। सं० १६६२ किरहोर (सिन्ध) में आपका स्वर्गवास हुआ था। . आपकी निम्नलिखित कृतियां प्राप्त हैं:१. चन्द्रदूत (मेघदूत पादपूर्तिरूप ७. दशवैकालिक सूत्र स्तबक ___ सं० १६८१. प्र.) २. पदव्याख्या .
८. उपदेशमाला स्तबक (र. सं० १६८६) ३. जीवविचार बालावबोध
६. प्रतिक्रमणसमाचारी स्तबक ४. नवतत्व
१०. यशोधर रास (र. सं० १६६५) ५. षष्टिशतक
११. जोधपुर-मंडन पार्श्वस्तब ६. जयतिहुअण ॥
१२. प्रतिक्रमण-विधि-स्तव (र. सं० १६९०:) १. विशेष परिचय के लिये देखें, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि। .
वल्लभ-भारती]
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