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युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पौषध-विधि-प्रकरण के वृत्तिकार आचार्य युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि श्रीजिनमाणिक्यसूरि के शिष्य थे। आपके माता-पिता वीसा ओसवाल श्रीवंत और सियादे खेतसर (मारवाड़) के निवासी थे। आप का जन्म सं० १५६५ में हुआ था और बाल्यावस्था का आपका नाम था सुलतान । आचार्य श्रीजिनमाणिक्यसूरि के उपदेश से प्रभावित होकर ६ वर्ष की अल्पावस्था में आपने सं० १६०४ में दीक्षा ग्रहण की और आप का उस समय दीक्षा नाम रखा गया सुमतिधीर । सं० १६१२ भाद्रपद शुक्ला ६ गुरुवार को जैसलमेर के राउल श्रीमालदेवजी ने आचार्य पदारोहण का उत्सव किया और बेगडाच्छ (खरतरगच्छ की 'ही एक शाखा) के आचार्य गुणप्रभसूरि ने आपको आचार्य पद प्रदान कर तथा जिनचन्द्रसूरि नाम प्रख्यात कर गच्छनायक घोषित किया सं० १६१४ चैत्र कृष्णा सप्तमी को प्रचलित शिथिलाचार को दूर कर आपने क्रियोद्धार किया । सं० १६१७ में पाटण में जिस समय तपगच्छीय उद्भटविद्वान् कदाग्रही उ० धर्मसागरजी ने गच्छ-विद्वषों का सूत्रपात किया उस समय उनका आचार्यश्री ने शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया और उनके उपस्थित न होने पर अन्य तत्कालीन समग्रगच्छीय आचार्यों के समक्ष धर्मसागरजी को उत्सूद बादो घोषित किया था। सम्राट अकबर के आमन्त्रण से सूरिजी १६४८ फाल्गुन शुक्ला १२ के दिवस ३१ साधुओं के परिवार सहित लाहौर में सम्राट से मिले और स्वकीय उपदेशों से प्रभावित कर आपने तीर्थों की रक्षा एवं अहिंसा प्रचार के लिये कई फरमान प्राप्त किये थे। सं० १६४६ फाल्गुन वदि १० के दिवस सम्राट् के हाथ से ही युगप्रधान पद भी प्राप्त किया जिसका विशाल महोत्सव करोड़ों रूपये व्यय कर महामन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने किया था। स० १६७० आश्विन कृष्णा २ को बिलाडा में आपका स्वर्गवास हआ था।
२२ वर्ष जैसी अल्पावस्था में पौषधविधि प्रकरण जैसे सैद्धान्तिक विधि-विधान पूर्ण : प्रकरण पर ३५४४ श्लोक प्रमाण वृत्ति रचकर आपने अपनी असीम प्रतिभा का परिचय दिया है। इस टीका की पूर्णाहूति सं० १६१७ विजय दसमी के दिवस पाटण में हुई है। इस प्रकरण के अन्तिम द्विपदी-पद्य की व्याख्या उपाध्याय जय गोम ने की है और इस वत्ति का संशोधन तत्समय के प्रतिष्ठित गीतार्थशिरोमणि महोपाध्याय पुण्यसागर, उपाध्याय धनराज और महोपाध्याय साधुकीति गणि ने किया है:
“एतद्विपदीव्याख्या लिखनादवलोकनाच्च गुरुवचसा । जयसोमोपाध्याया एतत्कृत्योपयोगिनो विहिताः ॥१॥ ग्रथितमदः श्रीगुरुभिः शास्त्रं जिनचन्द्रसूरिभिविवृतम् । पुण्यधनसाधुणितमेतज्जयकारणं भूयात् ॥२॥
तेषां गुरुणां शिष्येण श्रीजिनचन्द्रसूरिणा। श्रीपौषधविधेवृत्तिश्चक्रे वाणीप्रसादतः ॥१६।। मुन्येकणाङ्ककलाप्रमिते वर्षेऽहिल्लपुरनगरे । बभासि विजयदसमीदिवसे सत्पुण्यसम्पूर्णे ॥२०॥
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[ वल्लभ-भारती