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________________ यहां ग्रन्थकार स्वयं के लिये कहता है कि-विद्या को योग्य स्थान न मिलने से विश्व में भ्रमण करती हुई पीडित हो गई थी, मुझे योग्य पात्र समझ कर सूक्ष्म शरीर द्वारा मेरे में समाविष्ट हो गई और भूरिकाल से प्रीति की तरह वृद्धि को प्राप्त होती गई। कदाचित् मैं विहार (भ्रमण) करता हुआ चित्तौड़ आया। वहां के समुदाय ने मुझे सद्गुरु के रूप में स्वीकार किया। उस समय अम्बक, केहिल और वर्द्धमानदेव आदि प्रमुख व्यापारियों का समुदाय चित्तौड़ में रहता था और शुद्ध देव एवं सत्गुरु की उपासना करता रहता था । चित्तौड़ में उस समय पंक्ति बद्ध विशाल जैन-मन्दिर थे। __ मेरे उपदेश से चित्तौड़ के निवासियों ने शास्त्र-सम्मत विधिपक्ष, विधि-चैत्य और सुविहित साधुओं का स्वरूप समझ कर, चैत्यवासियों की मान्यता और प्ररूपणा का ल्याग कर सुविहित पक्ष के अनुयायी बने । उस समय वहां का समृदाय अपने को ऐसा मानने लगा, मानो इस कर भस्मकाल में भी हमें नवीन अर्हच्छासन प्राप्त हुआ है और इसी श्रद्धा से वे कुपथ से विमुख होकर धर्म-कर्म करने लगे। आ० जिनवल्लभ ने स्वप्रतिबोधित विधिपयानुयायी श्रेष्ठियों के कतिपय नाम इस प्रकार दिये हैं धर्कटवंशीय सोमिलक, वर्धमान का पुत्र वीरक, पल्लिका पुरी (पाली) में प्रख्यात प्रद्युम्नवंशीय माणिक्य का पुत्र सुमति, क्षैमसरीय (संभवतः खींवसर निवासी) भिषग्वर सर्वदेव और उसके तीनों पुत्र रासल, धन्धक एवं वीरक, खण्डेलवंशीय मानदेव और पद्मप्रभ का पुत्र प्रल्हक, पल्लिका में विश्रु त शालिभद्र का पुत्र साधारण और पल्लिका में चन्द्र समान ऋषभ का पुत्र सड्ढक आदि । इन श्रीष्ठियों ने चित्तौड़ में धर्माराधन हेतु विधि-चैत्य का अभाव महसूस कर नवीन चैत्य निर्माण का संकल्प किया। चैत्यवासियों के गढ़ में विधि-चैत्यों का निर्माण वेषधारियों के लिये कदापि सह्य नहीं था। उन्होंने निर्माण कार्य का ध्वंस करने के लिये भरपूर प्रयत्न किये, किन्तु उनके सारे प्रयत्न असफल रहे और अन्त में साधारण आदि उपरोक्त श्रीष्ठियों के प्रयत्नों से निर्माण कार्य पूरा हुआ। इस विशाल महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा (वि० सं० ११६३) में बड़े महोत्सव से सम्पन्न हुई। कल्याणक आदि पर्व दिवसों में अब धार्मिक समुदाय बड़े भक्तिभाव और आडम्बर से उत्सव मनाता है तथा अर्चन-पूजन करता हुआ कल्याणकारी मार्ग की ओर अग्रसर हो रहा है। इस गैत्य की अर्चा निमित्त प्रत्येक सूर्य संक्रान्ति पर दो पारुत्थ चित्तौड़ के धर्मदाय विभाग से देने का महाराजा श्री नरवर्मा ने आदेश दिया है। जिनवल्लभसूरि के इस अन्तरङ्ग प्रमाणभूत संक्षिप्त आत्मकथा के अतिरिक्त उनके योग्य शिष्य युगप्रधान दादोपनामधारक श्री जिनदत्तसूरि ने गणधरसार्द्ध शतक में , ६१ पद्यों में अपने गुरु की जो स्तुति को है उसकी टीका करते हुए उन्हीं के प्रशिष्य श्रीसुमति गणि ने आचार्य जिनवल्लभसूरि का विस्तार से जीवन-वृत्त दे दिया हैं। इसी का आधार लें। ३८ ] [ वल्लभ भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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