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________________ अध्याय:२ कवि का जीवन-वृत्त और देन आचार्य जिनवल्लभसूरि का जीवन-वृत्त आचार्य जिनवल्लभसूरि ने वि० सं० ११६३ में स्वप्रणीत अष्ट सप्ततिका अपरनाम चित्रकूटीय वीर-चैत्य-प्रशस्ति नामक ग्रन्थ में अपनी स्वयं की आत्मकथा का जो संक्षेप में आलेखन किया है, उसका सारांश इस प्रकार है: . निर्मल 'चन्द्रकुल' में श्री वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि हुये जो सिद्धान्तसम्मत साध्वाचार का उग्रता से पालन करने वाले तथा प्रगाढ और प्रतिभा सम्पन्न आगमज्ञ थे। एवं जिन्होंने राज्य सभा में सिद्धान्त-विरुद्ध आचरण वाले आचार्यों की प्ररूपणा और मान्यताओं को शास्त्रा-विरुद्ध ठहराकर गुर्जर प्रदेश (गुजरात) में संविग्न साधुओं (सुविहितों) के विहार मार्ग को सर्वदा के लिये प्रशस्त किया। ऐसे प्रकृष्ट गीतार्थ जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्रु तज्ञान रूपी ऐश्वर्य से अन्धकार रूपी स्मर को नाश करने में महेश्वर के समान श्री अभयदेवसूरि हुये। जिन्होंने स्वगुरूपदेश और स्वयं की विशद प्रज्ञा से श्रमण भगवान् महावीर के वंशज गणधरों द्वारा ग्रथित स्थानाङ्ग सूत्र से विपाक सूत्र पर्यन्त नवाङ्गों- जिनका गम्भीरार्थ उस समय तक अनुद्घाटित था-पर श्री संघ के तोष के लिये टीकाओं की रचना की। - आचार्य अभयदेव का यश सौरभ तो विश्वव्यापी था ही, और उनके प्रमुख शिष्योंप्रसन्नचन्द्रसूरि, वर्द्ध मानसूरि, हरिभद्रसूरि एवं देवभद्रसूरि आदि की वैदुष्य कीत्ति से आज भी दिग्दिगन्त स्तम्भित है। ऐसे सुविहित शिरोमणि और श्रेष्ठ गीतार्थ श्री अभयदेवसूरि से लोकों में अच्यं कूर्चपुरगच्छीय श्री जिनेश्वरसूरि का शिष्य, गणि पदधारक जिनवल्लभ (मैं) ने उपसम्पदा और सिद्धान्त-ज्ञान प्राप्त किया। वल्लभ-भारती ]
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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