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उनके गुरुभ्राता जिनशेखराचार्य के प्रशिष्य श्रीअभयदेवसूरि ने जयन्तविजय नामक काव्य ( २० सं० १२७८) में भी किया है :--
तच्छिष्यो जिनवल्लभो प्रभुरभूद् विश्वम्भराभामिनी
भास्वद्भालललामकोमलयशः स्तोमः शमाराभमूः । यस्य श्रीनरवमंभूपतिशिरः कोटीररत्नाङ्कुर
ज्योतिर्जालजलेरपुष्यत सदा पादारविन्दद्वयी ॥ १ ॥ कश्मीरानपहाय सन्तत हिमव्यासङ्गवैराग्यतः,
प्रोम्मीलद्गुणसम्पदा परिचिते यस्यास्यपङ्केरुहे । सान्द्रामोदतरङ्गिता भगवती वाग्देवता तस्थुषी,
धारालाल भव्य काव्य रचनाव्याजादनृत्यच्चिरम् ॥ २ ॥ १ जिनवल्लभप्रणीत चित्रकूटीय वीर चैत्यप्रशस्ति (पद्य ६३ ) में केवल यह उल्लेख मिलता है कि - महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा के समय चैत्य की अर्चा के लिए भूपति नरवर्मा प्रत्येक सूर्य संक्रान्ति पर पारस्थ द्वय देने का चितौड़ के धर्मदाय विभाग को आदेश दिया है । अतः यह निश्चित है कि प्रतिष्ठा से सम्बन्धित इस प्रशस्ति रचना के अनन्तर अर्थात् वि० सं० ११६३ के पश्चात् ही आचार्य का नरवर्मा से साक्षात्कार और उसके द्वारा तीन लाख मुद्रा या तीन ग्रामों का चित्तौड के विधि-चैत्यों की अर्चा के लिये दान आदि की घटनायें घटित
हुई हैं।
आचार्यपद और स्वर्गवास
जिनवल्लभगणि की प्रसिद्धि और प्रभाव को सुनकर श्रीदेवभद्राचार्य को अपने गुरु प्रसन्नचन्द्राचार्य का अन्तिम वाक्य स्मरण हो आया। उन्होंने सोचा कि मैं अभी तक अपने गुरुश्री के आदेश के अनुसार जिनवल्लभगणि को श्रीअभयदेवाचार्य का पट्टधर नहीं बना सका। ऐसा विचार कर उन्होंने जिनवल्लभगणि को पत्र लिखा । उस पत्र में लिखा था - "तुम शीघ्र ही अपने समुदाय सहित विहार कर चित्रकूट आओ, मैं भी वहीं पर आ रहा हूँ ।" जिनवल्लभगणि उस समय नागपुर (नागोर) में थे, वहां से वे विहार करके चित्रकूट (चित्तौड़) पहुंचे । देवभद्राचार्य भी अपने समुदाय सहित वहां पधारे। देवभद्राचार्य उस समय के परम प्रतिष्ठित गीतार्थसाधु और विद्वान् थे । इनके द्वारा रचित महावीरचरियं, पासनाहचरियं, कहाकोस इत्यादि महाग्रन्थ आज भी जैन कथा - साहित्य में आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं । उन्होंने उस समय पं० सोमचन्द्र ( जो कि आगे चल कर जिनवल्लभसूरि के पट्टधर युगप्रधान
९. इसी प्रकार का उल्लेख उ० जिनपाल ने चर्चरी टीका में भी किया है । यथा:
" मिथ्यादृष्टयोऽन्यदर्शन स्थिता अपि श्रीनरवर्म महाराजपण्डिताः पञ्चविंशतितमोऽयं तीर्थंकर इति प्रतिपादयन्तो वन्दन्ते किङ्करभावस्थिता बहुमानातिशयप्रवर्तित सादरवचनाः ।
लब्धप्रसिद्धिभिरत्यन्तप्रसिद्ध : सुकविभिर्नरवर्म महाराजसम्बन्धिभिः सादरं यो महितः ।
वल्लभ-भारती ]
( पृ० २४)
( चर्चरी टीका पृ० ४ )
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