________________
दत्तसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए) को भी बुलाया था, परन्तु वे किसी कारणवश न आ सके । आचार्य देवभद्रसूरि ने विधिवत् जिनवल्लभमणि को श्रीअभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित किया और उस समय से वे जिनवल्लभसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । परन्तु वे इस पद पर अधिक समय तक न रह सके । उन्होंने ज्योतिष गणना के अनुसार अपनी आयु छह वर्ष और समझी थी, परन्तु हह महिने ही बीते थे कि एकाएक उनका शरीर अस्वस्थ हो गया । यह देखकर उनको आश्चर्य हुआ और उन्होंने पुनर्गणना की तो पता चला कि पहले कुछ अङ्क छूट गये थे जिसके कारण छ महिने के स्थान पर छ वर्ष आये। ऐसा निश्चय हो जाने पर उन महानुभाव ने अन्तिम आराधना की तैयारी धैर्य और सन्तोष के साथ कर दी। संघ एकत्र हुआ । सर्व जीवों के प्रति आपने मैत्रीभाव को प्रकट करते हुए अपराधों की क्षमा याचना की । अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म का शरण अंगीकार किया और तीन दिन का अनशन किया । इस प्रकार तैयार होकर सं. १९६७ कार्तिक कृष्णा अमावस्या दीपावलि की मध्यरात्रि में पञ्चपरमेष्ठि का स्मरण करते हुए इस असार संसार को त्याग कर श्री जिनवल्लभसूरि ने चतुर्थ देवलोक की यात्रा की ।
शिष्य - परम्परा
उपलब्ध प्रबन्ध ग्रन्थों के अनुसार आचार्य जिनवल्लभसूरि का स्वहस्तदीक्षित शिष्य-समुदाय अत्यधिक विशाल नहीं था । प्रबन्धों के अनुसार जिस समय गणि जिनवल्लभ आगमों का अभ्यास करने के लिये आ० अभयदेवसूरि के पास गये, उस समय उनके साथ जिनशेखर नाम का शिष्य था और उपसम्पदा ग्रहण करने पर भी यही साथ रहा । आचार्य अभयदेवसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् अनुमानतः सं० ११४० के आसपार आप 'गुर्जर' प्रदेश छोड़कर मेदपाट की राजधानी चित्रकूट पधारे। उस समय सुमति गणि के अनुसार वे 'आत्मतृती ' ( अर्थात् दो शिष्य और तीसरे स्वयं ) थे । इन दो शिष्यों में एक तो जिनशेखर निश्चित ही हैं और दूसरे संभवतः रामदेवगण हों । इन दो के अतिरिक्त अन्य भी आपके शिष्य हों, परन्तु इसका उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु शिष्यों की संख्या अत्यल्प होते हुए भी 'परम्परा' आपकी अत्यन्त वितृत और विपुल थी। इनके शिष्य जिनशेखर की शिष्य - परम्परा को हों ले लीजिये - वही जिनशेखर जो आगे चलकर जिनशेखरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए; जिनका विहार और निवास रुद्रपल्ली में अधिक हुआ और इस कारण जिनकी परम्परा रुद्रपल्लीशाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई । रुद्रपल्ली शाखा एक खरतरगच्छ की हो शाखा थी जिसका अस्तित्व १७ वीं शती के अन्तिम चरण तक रहा हैं । इन जिनशेखरसूरि की रुद्रपल्ली परम्परा में जयन्तविजय महाकाव्यकार अभयदेवसूरि, वीतरागस्तुति तथा ऋषभपंचासिका विवरणकार प्रभानंदसूरि, कुमारपालप्रबन्ध, षड्दर्शन समुच्चय टीका आदि ग्रन्थों के टीकाकार सोमतिलकसूरि, सम्यक्त्व सप्तति के टीकाकार संघतिलकाचार्य, प्रश्नोत्तरमाला और दानोपदेश के टीकाकार देवेन्द्रसूरि, संदेशरासक के टीकाकार लक्ष्मीचंद्र, आचारदिनकर के प्रणेता वर्धमानसूर, जिनपंजरस्तोत्र के रचयिता कमलप्रभाचार्य आदि अनेक धुरन्धर विद्वान् आचार्य हुए हैं । जिन्होंने साहित्य-सर्जन और संवर्धन में अपना अमूल्य योग दिया है ।
१. परिचय के लिये आगे देखें, टीकाग्रन्थ और टीकाकार
५४ ]
वल्लभ-भारती