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यह एक परम्परा नहीं थी, यह तो एक शाखा थी । वस्तुतः आपकी जो पट्ट- परम्परा चली और जो आज तक अक्षुण्ण रूप से चलती आ रही है, उस परम्परा के प्रणेता हैं आपके पट्धर युगप्रधान जिनदत्तसूरि' ।
श्वेताम्बर जैन समाज में गौतम गणधर के सदृश प्रातःस्मरणीय आचार्यों में श्री जिनदत्तसूरि का नाम शताब्दियों से निरन्तर बड़ी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है । समाज में प्रथम दादाजी के नाम से ये अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । भारत के कोने-कोने में 'दादावाड़ी' के नाम से ख्यात समस्त स्थलों पर एवं यत्र-तत्र मन्दिरो में इनकी पादुकायें अथवा मूर्तियाँ विद्यमान हैं, जहाँ निष्ठा और विश्वास के साथ इनकी निरन्तर अर्चना होती है । शताब्दियों से इनके चमत्कार श्रद्धालु भक्त जनों को प्राप्त होते रहे हैं और आज भी होते हैं ।
अम्बिका देवी प्रदत्त युगप्रधान पदधारक श्री जिनदत्तरि का वि० सं० १९३२ में धोलका निवासी क्षपणक भक्त वाछिंग की धर्मपत्नी बाहड़देवी की कुक्षि से हुआ था । सं० १९४१ में धर्मदेवोपाध्याय ने इनको दीक्ष्ग प्रदान कर सोमचन्द्र नाम रखा था । अशोकचन्द्राचार्य ने इनको बड़ी दीक्षा प्रदान की थी। हरिसिंहाचार्य से इन्होंने समस्त शास्त्रों की वाचना प्राप्त की थी। श्रीजिनवल्लभसूरि की आज्ञानुसार श्रीदेवभद्राचार्य ने सं० ११६६ वैशाख शुक्ला प्रतिपदा को चित्तौड़नगरी में बड़े महोत्सव के साथ इनको आचार्य पद देकर जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर स्थापित किया था । आचार्य पद के समय सोमचन्द्र नाम परिवर्तित कर जिनदत्तसूरि नामकरण किया गया था ।
आचार्यपदानन्तर, देवलोकस्थ हरिसिंहाचार्य के संकेतानुसार आचार्यश्री नागोर होकर अजमेर आये और अजमेर के नृपति अर्णोराज चौहान को प्रतिबोध दिया । जयदेवाचार्य, रमलविद्या के जानकार जिनप्रभाचार्य, विमलचन्द्र गणि, मन्त्रवादी जयदत्त, गुणचन्द्र आदि प्रमुख चैत्यवासी आचार्यों ने भी चैत्यवास परम्परा का त्याग कर उनके पास उपसम्पदा ग्रहण की थी । आचार्य द्वारा प्रतिबोधित श्रावको में मेहर, भाखर, वासल, भरत, धनदेव, ठ० आशाधर, साधारण, रासल, देवधर आदि मुख्य थे । त्रिभुवनगिरि के महाराजा कुमारपाल को प्रतिबोध देकर इन्होंने अपना भक्त बनाया था । सवा लाख से अधिक व्यक्तियों को स्वकीय उपदेश से प्रतिबोध देकर, जैन बनाकर, ओसवंश में सैकड़ों नये गोत्र स्थापित किये थे । इनका विहारस्थल प्रमुखतया बागड और राजस्थान प्रदेश रहा । रुद्रपल्ली, अजमेर, त्रिभुवनगिरि, धारापुरी, गणपद्र आदि स्थानों में नवीन निर्मापित विधि - चैत्यों की प्रतिष्ठायें इन्हीं के करकमलों से हुई थीं । सं० १२११ आषाढ वदि ११, परम्परा की मान्यता के अनुसार आषाढ सुदि ११ को अजमेर में जिनदत्तमूरि का स्वर्गवास हुआ था ।
जिनदत्तसूरि ने संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की । इनके रचित ग्रन्थ परिमाण में छोटे होते हुये भी अतिशय अर्थ- गाम्भीर्य और महनीय कवित्व से ओत-प्रोत हैं । इन रचनाओं में सूरिजी को अपूर्व विद्वत्ता, प्रकृष्ट प्रतिभा और विशिष्ट व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है । इनके द्वारा प्रणीत निम्नांकित साहित्य प्राप्त है:
१. विशेष परिचय के लिये देखें, युगप्रधान जिनदत्तसूरि एवं स्वामी सुरजनदास लिखित दादाजी और उनका साहित्य
वल्लभ-भारती ]
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