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शिरच्छत्र पूज्य गुरुदेव श्री जिनमणिसागरसूरि जी म० द्वारा लिखित " षट् कल्याणक निर्णय " १ नामक पुस्तक देखें |
सङ्घ-बहिष्कृत ?
जो व्यक्ति पाण्डुरोग से ग्रसित हो जाता है उसे सृष्टि की समस्त वस्तुएं पीतवर्णी ही प्रतीत होती हैं वैसे ही धर्मसागरजी को विद्वत्ता का पीलिया हो गया, तत्फलस्वरूप उनकी दृष्टि में समग्र गच्छ वाले निह्नव, विशुद्ध और कठोर क्रियापानी खरतरगच्छ जैसा गण खरतर, जिनवल्लभसूरि जैसा आचार्य उत्सूत्न - प्रतिपादक मालूम हुए। जिनवल्लभसूरि को उत्सूत्रप्ररूपक कहने के पश्चात् एक जटिल समस्या उनके सन्मुख और आई कि ऐसे प्ररूपक
संघ, गण बहिष्कृत हुआ करते हैं तो क्यों न इनको संघ - बहिष्कृत सिद्ध कर दूं ? इसको सिद्ध करने के लिये प्रमाण को आवश्यकता थी । प्रमाण के लिये साहित्य - सागर में काफी गोता लगाया पर निष्फल हुए, अन्त में उनको एक प्रमाण मिल ही गया । वह यह था:
'सङ्घत्राकृतचैत्य कूटपतितस्यान्तस्तरां ताम्यतस्तन्मुद्राहढपाशबन्धनवतः शक्तश्च न स्पन्दितुम् । मुक्त्यै कल्पित दानशीलतपसोप्येतत्क्रमस्थायिनः, सङ्घव्याघ्रवशस्य जन्तुहरिव्रातस्य मोक्षः कुतः ॥ ३३ ॥ "
यह आचार्य जिनवल्लभसूरि प्रणीत सङ्घपक की ३३ वीं कारिका है। इसका अर्थ समस्त टीकाकारों ने निम्नलिखित किया है:
"इन हीन आचारवाले चैत्यवासियों को देने के लिये बनवाये गये चैत्यरूप कूट अर्थात् जाल में जो फंसे हुए हैं, इसी हेतु जो अन्तःकरण से छटपटा रहे हैं, परन्तु इन चैत्यवासियों की मुद्रा अर्थात् 'हमारे चैत्य को छोड़कर अन्यत्र मत जावो' ऐसी राजाज्ञारूप दृढ बन्धन से बन्धे हुए होने के कारण जरा भी हिलडुल नहीं सकते हैं । मुक्ति के लिये जो दान शील, तप आदि करते हैं, परन्तु इन हीनाचारियों के कुसंघ की परम्परा में पड़े हुए हैं । ऐसे जो ये दयनीय भव्य प्राणीरूप हरिणों के झुंड हैं, उनका होनाचारियों के कुसङ्घरूप व्याघ्र से छुटकारा कहां ? अर्थात् जैसे हरिण समूह जब व्याघ्रक्रम - व्याघ्र के पंजे में आ जाता है तब उसका छूट रा असंभव होता है उसी प्रकार इन हीनाचारियों के कुसङ्घरूप व्याघ्र के फंदे में पड़े
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. भव्य प्राणीरूप हरिणों का छुटकारा कहां ? अर्थात् उनका मुक्तिगमन कैसे हो सकता है ? इस ग्रन्थ के टीकाकार युगप्रवरागम श्रीजिनपतिसूरि के कतिचित् अपूर्ण वाक्यों का उल्लेख करके उ० धर्मसागरजी और वर्तमानकालीन विजय मसूरि तथा तन्मतानुयायी जो तोड़-मरोड़ कर अर्थ करते हैं वह कितना विचारणीय तथा उपहासास्पद है । देखिये:
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पद्य में आये हुए “सङ्घव्याघ्रवशस्य" शब्द पर विशेष ऊहापोह है। उनका मन्तव्य है कि संघ को व्याघ्र की उपमा देना पूर्ण रूप से अनुचित है । किन्तु किस संघ को व्याघ्र की
१. सुमति सदन, कोटा (राजस्थान) द्वारा प्राप्य
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[ वल्लभ-भारती