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(ढ) तपागच्छीय श्रीशान्तिचन्द्रगणि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका करते हुए भगवान्
ऋषभप्रभु का राज्याभिषेक कल्याणक माना जा सकता है या नहीं, प्रसंग पर लिखते हैं: - "वीरस्य गर्भापहार इव नायं कल्याणकः" अर्थात् वीर के गर्भापहार की तरह यह (ऋषभ का राज्याभिषेक) कल्याणक नहीं है । इससे स्पष्ट है कि गर्भापहार कल्याणकों की परिधि में है ।
(त) आगमिकगच्छीय आचार्य जयतिलकसूरि स्वप्रणीत सुलसाचरित्र के छट्ठे सर्ग में लिखते हैं:
"देवानन्दोदरे श्रीमान् श्वेतषष्ठ्यां सदा शुचिः । श्रवतीर्णोऽसि मासस्याषाढस्य शुचिता ततः ॥ १ ॥ त्रिशला सर्वसिद्ध च्छा, त्रयोदश्यामभूद् यतः । तवावतारातेनैषा, सवसिद्धा त्रयोदशी ॥२॥ शुक्ल त्रयोदश्यां यश्चा-चलमेरु प्रचालयन् । चित्रं कृतवांस्तद्योगा- चैत्रमासोऽपि कथ्यते ॥३॥ यस्याद्यदशभ्यां दुर्ग- मोक्षमार्गस्य शीर्षकम् । चारित्रमाहत युक्ता, मासोऽस्य मार्गशीर्षता ॥४॥ दशम्यां यस्य शुक्ला, केवलश्रीरहो त्वया । ह्यादत्ता तेन मासोऽस्य युक्ता माधवता प्रभो ॥५॥ तव निर्वाणकल्याणं यद्दिनं पावयिष्यति । तन्न वेद्मि यतो नाथ, मादृशोऽध्यक्षवेदिनः ॥ ६॥
सिद्धार्थ राजाङ्गज देवराज, कल्याणकैः षडभिरिति स्तुतस्त्वम् । तथा विधेद्यान्तरवै रिषट्कं यथा जयाम्याशु तव प्रसादात् ॥७॥
इत्यादि एक नहीं सैकड़ों प्रमाण दिये जा सकते हैं । अतः यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है कि जिनवल्लभगणि ने ही यह नूतन प्रतिपादन किया है । श्रीमान् जिनवल्लभ गणिने तो केवल जो वस्तु चैत्यवासियों के कारण 'विवर" में प्रविष्ट होती जा रही थी उसका पुनः उद्धार कर जनता के सामने रखकर अपनी असीम निर्भीकता का परिचय दिया है । वस्तुतः गणिजी का यह षट् कल्याणकों का प्रतिपादन उत्सूत्र प्रतिपादन नहीं था, किन्तु
द्धान्तिक वस्तु का ही प्रतिपादन था । यदि यह प्ररूपणा, उत्सूत्र - प्ररूपणा होती तो तत्कालीन समग्र गच्छों के आचार्य इसका उग्र विरोध करते; प्रतिशोध में दुर्दम कदम उठाते । पर आश्चर्य है कि तत्काल वत्ति किसी भी आचार्य ने इस प्ररूपणा का विरोध किया हो ऐसा प्रमाण प्राप्त नहीं होता है; प्रत्युत प्रतिपादन के प्रमाण अनेकों उपलब्ध होते हैं । अतः यह सिद्ध है कि यह प्ररूपणा तत्कालीन समग्र आचार्यों को मान्य थी। साथ ही यह भी मानना होगा कि खुद तपागच्छीय विद्वानों ने भी पट् कल्याणक लिखे हैं. अतः धर्मसागरजी की स्वयं की प्ररूपणा ही निह्नव मार्ग की प्ररूपणा है, आचार्य जिनवल्लभसूरि की नहीं ।
इस कल्याणक के विषय में शास्त्रीय दृष्टि से विशेष अध्ययन करना हो तो मेरे वल्लभ-भारती ] [ ७५