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__ गणि चारित्रवर्धन की पूर्वावस्था का वर्णन तथा दीक्षा-शिक्षा इत्यादि का वर्णन पूर्णतः अनुपलब्ध है। केवल टीकाओं की प्रशस्तियां देखने से यह ज्ञात होता है कि आपका साहित्य-सर्जन काल सं० १४६२ से १५२० तक का है। आचार्य जिनहितसूरि के प्रशिष्य चारित्रवर्धन थे और आचार्य-परम्परा के अनुसार जिनराजसूरि ५वे पट्ट पर आते है। इस दृष्टि से चारित्रवर्धन का दीक्षा काल अनुमानतः १४७० स्वीकार किया जा सकता है। चाहे कल्याणराज अतिवृद्ध हों या चारित्रवधन; किन्तु यह निःसंदेह है कि इनकी दीक्षा पर्याय बहुत बड़ी रही है। कुमारसम्भव टीका की रचना सं० १४६२ में हुई है। इस टीका का आद्योपान्त भाग अवलोकन करने से यह निश्चित ज्ञात होता है कि यह कृति प्रारम्भिक अवस्था की नहीं अपितु प्रौढावस्था की है। तथा इसमें उल्लिखित स्वयं के लिये वाचनाचार्य पद को ध्यान में रखने से ऐसा अनुमान होता है कि लगभग २०-२२ वर्ष का समय उनकी दीक्षा को हो चुका होगा। इस दृष्टि से दीक्षा समय १४७० के लगभग ही आता है। सं० १४६२ की रचना में जिनतिलकसूरि का उल्लेख होने से सम्भवतः वाचनाचार्य पद आपको इन्होंने प्रदान किया होगा।
कवि की कोई भी मौलिक कृति प्राप्त नहीं है। व्याख्या ग्रन्थ अवश्य प्राप्त हैं जो इनकी कीत्ति को अक्षुण्ण रखने में अवश्य समर्थ हैं ।
तालिका इस प्रकार है१. रघुवंश शिष्यहितैषिणी वृत्ति
- अरडक्कमल्ल अभयर्थनया २. कुमारसंभव शिशुहितैषिणी वृत्ति सं० १४६२३ ३. शिशुपालवध वृत्ति
४. नैषध वृति सं० १५११५ .. ५. मेघदूत वृत्ति
६. राघवपाण्डवीय वृत्ति
१. मेरे संग्रह में, २. गुजराती मुद्रणालय बम्बई द्वारा सं० १९५४ में प्रकाशित । ३. वर्षे विक्रमभूपतेविरचिता दृग्नन्दमन्वङ्किते,
माघे मासि सिताष्टमी सुरगुरावेषोऽञ्जलिर्वो बुधाः । (कु. सं. व. प्र.) ४. नाहटाजी की सूचना के अनुसार नित्य विनय मणि जीवन जैन लायब्रेरी, कलकत्ता आदि में प्राप्त है। ५. तेनामुख्यविपक्षवादिनिकराहकारविश्वम्भरा
भृल्लेखप्रभुणा शिवेषशशभृत्संख्या कृते वत्सरे। टीका राघवलक्षमाधवतिथौ शक्रेण चक्रे महाकाव्यस्यातिगरीयसो मतिमतां श्रीनैषधस्यार्थदाः ॥१४॥
(नषष-टीका-प्रशस्ति) ६. मेरे संग्रह में व मुद्रित
बल्लभ-भारती ]
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