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आप वादी - विजेता तो थे ही साथ ही आपकी संघपट्टक की टीका का अवलोकन करते
हैं तो कहना ही पड़ता है कि आपकी लेखिनी भी सरस्वती पुत्र के अनुकूल ही है । संघपट्टक जैसे ४० पद्यों वाली कृति पर ३२०० श्लोक प्रमाणोपेत टीका की रचना में आपने आगमों तथा प्रकरणों के अनेक उद्धरणों द्वारा विधिपक्ष की समर्थना में जो सफलता प्राप्त की है वह श्लाघनीय है । इस टीका की शैली नैयायिक शैली है; जिसमें स्वतः ही प्रश्न उद्भूत कर नैयायिक दृष्टि से ही उत्तर प्रदान किये गये हैं । इसकी भाषा अत्यन्त प्रौढ और प्राञ्जल होने के कारण विद्वभोग्या बन गई है । वाक्यों की आलंकारिक छटा, प्रौढता तथा समास - हुलता का परिचय टीका की अवतरणिका से ही करिये :
' इह हि सदृशां पदार्थसार्थ प्रकटनपटीयसि समूलकाषङ कबितनि शेषदोषे निर्वाणचरमशिखरीशिखरमधिरूढे भगवति भास्त्रति श्रीमहावीरे, तदनु दुःषमासमयभविष्णुदशमाश्चर्य महादोषान्धकारोदयात्तनिमानमासादयति जिनराजमार्गे मन्दायमानेषु सदृष्टिषु सात्विकेषु सत्त्वेषु प्रोज्जृम्भमाणेषु सदालोकबाह्यषु तामसेषु निरङ्कुशमत्तमतङ्गजवद्यथेच्छं गर्जत् सञ्चरिष्णुषु प्रमादमदिरामदावदायमानानवद्यविद्यासम्पत्तिषु सातशीलतया स्वकपोलकल्पना शिल्पिकल्पितजिनभवन निवासेषु चौलुक्य वंशमुक्तामाणिक्य चारुतत्वविचारचातुरीधुरीण विलसदङ्गरङ्गनृत्यन्नीत्यङ्गनारञ्जितजगज्जनसमाजश्रीदुर्लभराजमहाराजसभायां अनल्पजल्पजलधिसमुच्छलद तुच्छ विकल्प कल्लोलमालाकवलितबहलप्रतिवादिकोविदग्रामण्या 'संविग्नमुनिनिवहाग्रण्या सुविहितवसतिपथप्रथनरविणा वादिकेसरिणा श्रीजिनेश्वरसूरिणा ००"
इस टीका की रचना कब हुई है निश्चित नहीं कहा जा सकता । किन्तु इस टीका प्रौढता देखते हुए सं० १२३५ के पश्चात् ही इसकी रचना हुई हो। आपके रचित लगभग ८.१० स्तोत्र भी प्राप्त हैं ।
यह टीका अनुवाद सहित जेठालाल दलसुख की तरफ से प्रकाशित हो चुकी है ।
हर्ष राजोपाध्याय
सङ्घपट्टक लघुवृत्तिकार उपाध्याय हर्षराज श्रीजिनभद्रसूरि के प्रशिष्य, महोपाध्याय श्री सिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य तथा उपाध्याय अभयसोम के शिष्य थे । इनका विशेष वृत्तान्त ज्ञात नहीं है । इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में रचना संवत् का उल्लेख भी नहीं है, परन्तु
१. श्रीमति खरतरगच्छे श्रीजिनभद्राभिधा गरणाधीशाः । सिद्धान्तरुचिप्रौढानूचानाः सन्ति तच्छिष्याः ॥ १ ॥ श्रीमदभयसोमास्तूपाध्यायास्तद्विनेयविख्याताः ।
तच्छिष्य हर्षराजोपाध्यायेन हि कृता वृत्तिः ॥ २ ॥ लब्धिवाग्गुरुभद्रोदय साहायाच्च सङ्घपट्टस्य । श्रीमज्जिन पतिसूरीश्वर कृतबृहट्टीकातः ॥३॥ यदत्र हर्षराजेन लिखितं मतिमान्द्यतः ।
विरुद्ध चं तदुत्सूत्रं बुधं शोध्यं सुबुद्धिभिः || ४ ||
वल्लभ-भारती ]
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