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________________ तरह से पराजय प्राप्त कर तथा राजकीय नियमानुसार "अर्धचन्द्राकार " प्राप्त किया था। दो दिवस के पश्चात् सम्राट् पृथ्वीराज ने परिवार सहित उपाश्रय में आकर आचार्यश्री को 'जयपत्र' प्रदान किया था । " सं० १२४४ में आपकी निश्रा में तीर्थयाचार्थ संघ निकला था। वह क्रमशः प्रयाण करता हुआ चन्द्रावती पहुंचा। वहां पूर्णिमापक्षीय आचार्य अकलङ्कदेवसूरि के साथ नामसम्बन्धी आदि अनेक विषयों पर मनोविनोदार्थ सुन्दर विचार-विमर्श हुआ था । चन्द्रावती में ही पौर्णमासिक आचार्य तिलकप्रभसूरि के साथ तीर्थयात्रा आदि अनेक शास्त्रीय विषयों पर शास्त्रचर्चा हुई थी । 1 संघ, चन्द्रावती से क्रमश: प्रयाण करता हुआ आशापल्ली पहुंचा। वहां आचार्यश्री का परमभक्त श्रावक क्षेमन्धर; जिसका पुत्र प्रद्युम्नाचार्य नाम से ख्यातिमान वादी देवाचार्य की पौषधशाला में रहता था, जो उस समय चैत्यवासि आचार्यों में प्रमुख माना जाता था । उसकी ( प्र म्नाचार्य की ) आचार्य जिनपति के साथ शास्त्रार्थ करने की अभिलाषा थी। इस मनोकामना को आचार्यश्री ने स्वीकार किया, किन्तु संघ को वहां ठहरने का अवकाश न होने के कारण, आह्वान को लक्ष्य में रखकर, वहां से प्रयाण कर उज्जयन्त, शत्रु ञ्जय इत्यादि तीर्थों की तीर्थयात्रा कर आचार्यश्री पुनः आशापल्ली ( अहमदाबाद ) आये और प्रद्य ुम्नाचार्य के साथ उनकी इच्छानुसार " आयतन - अनायतन" विषय पर शास्त्रार्थ क्रिया । इस शास्त्रार्थ में आचार्य प्रद्युम्नसूरि विशेष समय तक स्थिर न रह सका । अन्त में पराजय प्राप्त कर स्वस्थान को लौट गया । इसी वाद के उपलक्ष में आचार्य ने जो प्रत्युत्तर प्रदान किये थे उनका दिग्दर्शन कराने वाला स्वरचित 'प्रबोधोदय वादस्थल' नामक ग्रन्थ प्राप्त है जो जैसलमेर आदि भंडारों में है । सं० १२५३ में षष्टिशतक प्रकरण के कर्त्ता नेमिचन्द्र भंडारी ने; जो अनेक वर्षों से शुद्ध गुरु की शोध में भटकते थे आचार्यश्री से प्रतिबोध पाया । इसी वर्ष पत्तन ( अणहिल्लपुर पाटण) का भंग हो जाने से आचार्य ने घाटी ग्राम में चातुर्मास किया था । सं० १२७२ में "बृहद्वार" में नरेश पृथ्वीचन्द्र की सभा में काश्मीरी पण्डित मनोदानन्द का 'जैन षड्दर्शन बाह्य हैं' विषय पर आचार्यश्री की आज्ञा से उपाध्याय जिनवाल से शास्त्रार्थ हुआ था, उसमें उपाध्याय सफल हुए थे और जयपत्र प्राप्त किया था । आपने अपने जीवनकाल में अनेकों विद्वानों के साथ ३६ शास्त्रार्थ किये और उन सभी विवादों में विजय पताका प्राप्त की । इसीलिये प्रत्येक ग्रन्थकारों ने आपके नाम के साथ " षड्विंशद्वादविजेता" विशेषण सुरक्षित रखा है । आपने अपने ५४ वर्ष के लम्बे आचार्य-काल में सैकड़ों प्रतिष्ठाएं, सैकड़ों दीक्षायें एवं अनेकों योग्य व्यक्तियों को पद प्रदान आदि अनेक कार्य किये हैं जिनका वर्णन जिनपालोपाध्याय लिखित गुर्वावली में उपलब्ध है । सं० १२७७ आषाढ शुक्ला दसमी को पालनपुर में आपका स्वर्गवास हुआ था । १. युगप्रधानाचार्य गुर्वावली पृष्ठ ३३ १६० ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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