SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महोपाध्याय श्री सिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य होने के कारण इस वृत्ति की रचना १६ वीं शताब्दि के प्रारंभ में हुई है। यह लघुवृत्ति वस्तुतः स्वतंत्र वृत्ति नहीं है किन्तु आ० जिनपतिसूरि रचित बृहद् टीका का सङ्कलनमात्र है। बृहट्टीका के प्रपञ्चित पक्ष-विपक्ष प्रतिपादन, आगमिक-उद्धरण इत्यादि का त्यागकर मूल ग्रन्थानुसारिणी समग्र टीका का प्रारंभ से अन्त तक पंक्ति-पंक्ति, अक्षर-अक्षर को उद्धृत कर लेखक ने संक्षिप्त संस्करण तैयार किया है। यह लघुवृत्ति श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत से प्रकाशित हो चुकी है । लक्ष्मीसेन सङ्घट्टक काव्य की स्फुटार्था नाम की टीका रचने वाले श्री लक्ष्मीसेन के सम्बन्ध में उल्लेखनीय सामग्री का अभाव है । केवल इस टीका की प्रशस्ति से इतना ज्ञात होता है। कि लक्ष्मीसेन विमलकीत्ति वाले श्रावक वीरदास के पौत्र और धीरवीर श्री हमीर के पुत्र थे 1 संघपट्टक जैसे दुरूह काव्य पर १६ वर्ष की अल्पायु में सं० १५१३ में स्फुटार्था नाम की टीका की आपने रचना की है । क्व जिनवल्लभ सूरिसरस्वती, क्व च शिशोर्मम वाग्विमवोदयः । शुकवचोवदिमां सुजनाः खलु, श्रवणयोः कुतुकात् प्रकरिष्यथ ॥१॥ श्री वीरदास इति वीरजिनेश्वरस्य पादाब्ज पूजनपरायणचित्तवृत्तिः । श्रीमान मूदमल कीत्तिवितानकेन, येनावृतं जगदिद करुणात्मकेन ॥२॥ तस्यात्मजो भवदनन्तगुणाः समग्र-सम्यक्त्व संग्रहविर्वाद्धतपुण्यराशिः । श्रीमान् हमीर इति धीरतरः शरीरः, वाक्कमहृद्भिरनिश जिनपूजनाय ॥३॥ तत्पुत्रोऽतिपवित्रकर्मनिरतः सद्विद्यया सर्वतः, ख्यातः षोडशहायनोऽप्यरचयत् टीकां स्फुटार्थाभिधाम् । लक्ष्मीसेन इति प्रसिद्धमहिमा देवान् गुरूनचंयन्, जयाज्जीवदयापरः परपरीतापातिहन्ता वरः ॥४॥ विमले श्रावणमासे वर्षे त्रिमीषुचन्द्र संगुणिते । कृतवान् लक्ष्मीसेन टीका श्रीसङ्गपट्टस्य ||५|| यह टीका सामान्य सी ही है । टीकाकार कई-कई स्थलों पर शाब्दिक पर्यायों का कथन त्याग कर भावार्थ तात्पर्यमात्र ही प्रकट करने को उत्सुक प्रतीत होता है, अत: कई स्थलों का विवेचन अस्पष्ट सा रह गया है। साथ ही इनके सन्मुख बृहट्टीका होने के कारण कई स्थानों पर उन्हीं शब्दों को अक्षरशः उद्धृत भी कर दिया है । आश्चर्य की वस्तु यह है कि इस टीका की जितनी भी प्रतियें देखने में आई हैं उन में केवल पद्य २६ की टीका प्राप्त नहीं होती है। इस पद्य की टीका टीकाकार स्वयं ही करना भूल गया या पश्चात् प्रतिलिपिकार भूलते ही आये, निश्चित नहीं कहा जा सकता । १. उदाहरण के लिये देखिये, मेरी लिखित संघपट्टक की भूमिका १६२ ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy