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२५ रचनायें उपलब्ध हैं । श्रीवल्लभोपाध्याय ने जयसागरोपाध्याय रचित साधारण जिनस्तुति टीका में लिखा है कि 'जयसागरोपाध्याय ने संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में ५०० लघु स्तोत्रों की रचना की थी और स्तुतियों की भी विपुल परिमाण में रचना की थी।'
__आपने अपने जीवन में अनेक तीर्थयात्राएं की थी, जिनमें से नगरकोट तीर्थयात्रा का वर्णन 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' जैसे आलङ्कारिक ग्रन्थों में पाया जाता है । आपकी शिष्य-परंपरा भी बड़ी थी। आपके संबंध में विशेष ज्ञातव्य के लिये देखें मेरे द्वारा लिखित 'अरजिन स्तव की भूमिका'।
भावारिवारण स्तोत्र वृत्ति का रचना काल ज्ञात नहीं । यह वृत्ति बालावबोधहिताय लिखी गई है। सामान्यतया यह वृति सुन्दर है और प्राथमिक अभ्यासियों के लिये तो उपादेय है ही। यह टीका हीरालाल हंसराज की तरफ से प्रकाशित हो चुकी है।
वाचनाचार्य चारित्रवर्धन पंच महाकाव्यों के प्रसिद्ध व्याख्याकार वाचनाचार्य चारित्रवर्धन भारतीय वाङमय के एक समर्थ प्रतिभाशाली एवं विश्रत विद्वान थे। व्याकरण, निरुक्त तथा अलकार विषयक आपका ज्ञान इतना व्यापक था कि अन्य परवर्ती टीकाकारों को भी आपका 'मत' स्वीकार करना पड़ा। आपकी टीकाओं को देखने से न केवल हमें उनके व्याकरण तथा लक्षणशास्त्र के अगाध ज्ञान का पता चलता है अपितु उनके न्याय, दर्शन, जैन सिद्धान्त और साहित्य का भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि आप सर्वदेशीय विद्वान थे। यही कारण है कि आप अपनी टीकाओं की प्रशस्ति में अपनी योग्यता का गर्व भरे शब्दों में स्वयं को 'नरवेष सरस्वती' उपनाम स्थापित करते हुए लिखते हैं:
तच्छिष्य-प्रतिपक्षदुद्धं रमहावादीमपञ्चाननो, मानानाटकहाटकामरािरः साहित्यरत्नाकरः। न्यायाम्भोजविकाशवासरमणिबौद्धति जाग्रत्प्रभो, वेदान्तोपनिन्निधन्नधिषणोऽलङ्कारचूडामणिः ॥ मीवीरशासनसरोरुहवासरेशः, सद्धर्मकर्मकुमुदाकरपूरिणमेन्दुः ।
बाचस्पतिप्रतिमधीनरवेषवाणि-र्चारित्रवधनमुनिविजयी जगत्याम् । चारित्रवर्धन गणि खरतरगच्छ की एक प्रमुख शाखा (जो लघु खरतर के नाम से प्रसिद्ध है) के प्रसिद्ध जैनाचार्य मुहम्मद तुगलक प्रतिबोधक, विविधतीर्थकल्प आदि ऐतिहासिक ग्रन्थों के रचयिता, १४ वीं प्रती के उद्भट विद्वान् श्रीजिनप्रभसूरि की परम्परा के 'चौथे आचार्य श्रीजिनहितसूरि के प्रशिष्य तथा उपाध्याय कल्याणराज के शिष्य थेः
वंशे श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः सिद्धान्तशास्त्रार्थवित, दपिष्ठप्रतिवादिकुञ्जरघटाकण्ठीरवः सूरिराट् । नानानव्यसुभव्यकाव्यरचनाकाव्यो विभाख्याऽमलप्रज्ञो विज्ञनतो जिनेश्वर इति प्रौढप्रतापोऽभवत् ॥१॥
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[ वल्लभ-भारती