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तथा चैत्यों में प्रवेश भी नहीं करने देते हैं। साथ ही कदाग्रह - ग्रस्त एवं मात्सर्य से पीडित होकर भी स्वयं को धार्मिक और अन्य को अधार्मिक कहते हैं । ऐसी अवस्था में शास्त्रसम्मत और कुपथसम्मत आयतन का भेद आवश्यक होने से विधिचैत्य का निर्माण शास्त्रयुक्त है । विधिमार्ग का प्रकाशन विधिचैत्य के निर्माण से ही सम्भव है । इसीलिये नवीन महावीर चैत्य का निर्माण श्रावकों ने किया है।
इसी चित्रकूटीय वोर चैत्य प्रशस्ति पद्य ७८ में आ० जिनवल्लभ ने इस नूतन निर्मापित महावीर विधिचैत्य की प्रतिष्ठा का समय शक संवत् १०२८ अर्थात् विक्रम संवत् ११६३ दिया है । अत: यह अनुमान किया जा सकता है कि वि० सं० १९५८ और १९६० के पूर्व ही जिनवल्लभ गणि गुजरात से चलकर चित्तौड़ आये और वहां रहते हुये तत्त्रस्थ श्रेष्ठियों को आयतन विधि ( विधिपक्ष) का उपासक बनाया एवं उन्हें उपदेश देकर नूतन विधि - चैत्यों का निर्माण करवाया । इसी बीच अर्थात् वि० सं० १९६० के आस-पास चित्तौड़ में ही महावीर स्वामी के षट् कल्याणकों का सैद्धान्तिक रूप से प्रतिपादन किया होगा ।
षड्यंत्र का भण्डाफोड़
जिनवल्लभ गणि के बढते हुए प्रभाव को कुछ लोग सहन न कर सके और वे उसको कम करने के लिये तरह-तरह के उपाय करने लगे । किन्हीं मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को जिनवल्लभजी के पास भेजा । प्रत्यक्ष में तो वे गणिजी से सिद्धान्तवाचना के लिये आये थे परन्तु अप्रत्यक्ष में वे एक षड्यन्त्र का आयोजन कर रहे थे। जिनवल्लभगणि शुद्ध मन से उन दोनों को सिद्धान्तों का अध्ययन कराते थे, परन्तु वे दोनों येन-केन-प्रकारेण जिनवल्लभगणि के श्रद्धालु श्रावकों में उनके प्रति असद्भाव उत्पन्न करने में लगे हुए थे और अपने सब कारनामों का समाचार अपने गुरु मुनिचन्द्राचार्य को लिखते रहते थे । एक बार संयोगवश उनका लिंखा पत्र जिनवल्लभजी के हाथ आगया और सारा भण्डाफोड़ हो गया । सारा प्रसंग जानकर उनके मन में खेद उत्पन्न हुआ और उनके मुख से निकल पड़ा :
प्रासीज्जनः कृतघ्नः, क्रियमारगघ्नस्तु साम्प्रतं जातः ।
इति मे मनसि वितर्को, भवितालोकः कथं भविता ॥ १ ॥
[ किये हुए उपकार को न मानने वाले कृतघ्न पुरुष पहिले भी थे किन्तु प्रत्यक्ष में किये जाने वाले उपकार को न मानने वाले भी कृतघ्न इस समय देखे जाते हैं । मुझे रहरहकर मन में विचार आता है कि आगे होने वाले लोग कैसे होंगे ? ]
जिनवल्लभगणि बड़े स्पष्टवादी थे और उनकी आलोचना बड़ी कटु होती थी । सभी विद्वान् लोग बैठे हुए थे, बहुत से ब्राह्मण विद्वान् भी आये हुए थे । इस बार व्याख्यान निम्नलिखित गाथा आगई -
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विज्जाईण गिहीर, जाई (जई) पासत्थाईण वावि दट्ठूणं । जस्स न मुज्झइ दिट्ठी, प्रमूढदिट्ठ तयं बिति ॥ १ ॥
इस गाथा की व्याख्या उन्होंने बड़े विस्तार के साथ की और इस प्रसंग में चैत्यवासियों के साथ-साथ ब्राह्मणों की भी तीव्र आलोचना की । ब्राह्मण लोग इस बात को सहन
वल्लभ-भारती ]
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