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न कर सके और क्रुद्ध होकर व्याख्यान से उठ गये। उन्होंने एकत्र होकर सोचा कि किसी प्रकार जिनवल्लभ के साथ विवाद करके इनको निष्प्रभ करना चाहिये । परन्तु जिनवल्लभगणि इससे तनिक भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने निम्नलिखित पद्य भोजपत्र पर लिख कर उनके पास भेजा:
मर्यादाभङ्गभीतेर मृतमयतया धैर्यगाम्भीयंयोगाद्, न क्षुभ्यन्ते च तावन्नियमितसलिला: सर्वदेते 'समुद्राः 1 श्रहो ! क्षोभं व्रजेयुः क्वचिदपि समये दैवयोगात् तदानीं, न क्षोणी नाद्रिचक्रं न च रविशशिनौ सर्वमेकार्णवं स्यात् ॥ १ ॥
[ अर्थ - अमृत के समान स्वच्छ जल से परिपूर्ण नियमित जल वाले ये समुद्र धीरता, गम्भीरता और मर्यादाभंग के डर से क्षोभ को प्राप्त नहीं होते हैं। यदि दैवयोग से ऐसे इन समुद्रों में कदाचित् क्षोभ उत्पन्न हो जाय तो पृथ्वी, पर्वत, सूर्य, चन्द्र तक का भी पता न चले । सारा जगत् जलमय ही हो जाय । ]
यह श्लोक वृद्ध ब्राह्मण ने पढा और अन्य कुपित हुए ब्राह्मणों को समझा-बुझाकर शान्त किया ।
प्रतिबोध और प्रतिष्ठाएँ
इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनवल्लभगणि ने द्रोह, दर्प और विरोध के सामने कभी सिर नहीं झुकाया, साथ ही वे यह भी समझते थे कि मनुष्य कितना निरीह प्राणी है। जो लोभादि का शिकार सहज ही में हो जाता है। ऐसे लोगों पर वे क्रोध नहीं करते थे, क्योंकि वे दया के पात्र होते हैं। इस प्रकार के लोग भी उनके पास आते थे, तो वे उनको आध्यात्मिक रोगी समझ कर उनकी चिकित्सा विधान किया करते थे, शतं इस बात की थी कि उस व्यक्ति में पूर्ण श्रद्धा होनी आवश्यक थी । एक बार गणदेव नाम का एक श्रावक उनके पास आया, उसे स्वर्ण (सोना) सिद्धि की आवश्यकता थी । उसने सुन रखा था कि जिनवल्लभ जी के पास स्वर्णसिद्धि है, वह उनके स्थान पर बारंबार आने लगा । गणिजी को उसका यह भाव ज्ञात हो गया । उन्होंने लिप्सा की लपट से दग्ध होते हुए उसके हृदय को परख लिया । अतः उन्होंने ऐसे उपदेशामृत की वृष्टि करना आरंभ किया कि वह सेठ स्वर्णार्थी से धर्मार्थी हो गया। तब गणिजी ने पूछा “भद्र ! कहो, क्या तुम्हें स्वर्णसिद्धि की आवश्यकता है ?" तो उसका यही उत्तर था कि "मैं तो श्राद्ध-धर्म का ही व्यवहार करना चाहता है ।" यही सेठ बाद
इनके लिखित " द्वादशकुलक" नामक उपदेशों को लेकर वाग्जड (वागड़ ) प्रदेश में गया और उनका प्रचार करके जिनवल्लभगणि की कीर्तिपताका फैलाई। इसके फलस्वरूप वहां की सारी जनता में गणिजी के प्रति अपार श्रद्धा और स्नेह का वातावरण बन गया' ।
इसके पश्चात् उनकी कोत्ति दिन-प्रतिदिन बढती गई और वे अपने ज्ञान और चारित्र के लिये प्रसिद्ध होते गये । दूर-दूर स्थानों से श्रावक लोग उनको आमन्त्रित करने लगे । नागपुर
१. जिसका लाभ सूरिजी के पट्टधर, युगप्रधान पद विभूषित, दादा श्रीजिनदत्तसूरिजी को प्राप्त हुआ ।
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[ वल्लभ-भारती