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( नागोर) में जाकर उन्होंने नेमिनाथ विधिचैत्य की प्रतिष्ठ की' और तत्त्रस्थ संघ ने आदर पूर्व सर्वसम्मति से इनको गुरु-रूप में स्वीकार किया। इधर नरवरपुर के श्रावकों के हृदय में भी यह अभिलाषा उत्पन्न हुई कि जिनवल्लभजी को अपने गुरु रूप में स्वीकार करके उनके द्वारा देवमन्दिर और देवप्रतिमा की स्थापना करवायें। उनकी प्रार्थना स्वीकार हुई और जिनवल्लभगणिजी ने नरवरपुर जाकर उनको कृतार्थ किया। जिन-जिन मन्दिरों में उन्होंने प्रतिष्ठा करवाई, उनकी विशेषता यह थी कि उनमें यह स्पष्ट आदेश लिखवा दिया गया था कि " वहां रात्रि के समय पूजा, अर्चन, स्त्री का प्रवेश तथा ऐसे ही अन्य कार्य जो चैत्यवासियों के मन्दिरों में होते थे; नहीं होंगे ।" इस प्रकार जिनवल्लभगणि का सन्देश स्पष्टतया सफल होने लगा था । अब इनको सन्तोष हो चला था कि उन्होंने अपने गुरु अभयदेवाचार्य को जो वचन दिया था, वे उसके अनुसार आचरण करने में पूर्ण सफल हो रहे हैं ।
प्रवचनशक्ति
जिनवल्लभगणि की व्याख्यानपटुता तथा प्रवचनशक्ति की भी बहुत प्रसिद्धि हुई । एक बार विक्रमपुर के आस-पास विहार कर रहे थे । मरुकोट्ट निवासियों ने उनके प्रवचन की प्रशंसा सुनकर उनको अपने नगर में बुलाना चाहा । बहुत मानपूर्वक वीनती करने पर जिनवल्लभगणि विक्रमपुर होते हुए मरुकोट्ट पधारे। वहाँ पहुंचने पर श्रावकों ने एकत्र होकर बड़े विनीत भाव से प्रार्थना की कि 'हे भगवन् ! हम लोग आपके श्रीमुख से भगवद् वचनों पर प्रवचन सुनना चाहते हैं ।' जिनवल्लभगणि ने कहा- 'श्रावकों की यह इच्छा सर्वथा उचित और श्लाघ्य है ।' अतः शुभ दिन से प्रवचन प्रारम्भ हुआ । अपने व्याख्यान के लिए उन्होंने श्रीधर्मदासगणि कृत उपदेशमाला की निम्नांकित गाथा को चुना:
संवच्छर मुसभजिरगो, छम्मासा वद्धमाणजिणचंदो | इय विहरिया निरसरणा, जइज्ज एग्रोवमाणेणं ॥३॥
इस गाथा को लेकर वाचनाचार्य जिनवल्लभजी ने अनेक दृष्टान्त, उदाहरण आदि देते हुए, सिद्धान्त-प्ररूपण करते-करते छः महीने लगा दिये । इसको देख कर सभी लोग आश्चर्यचकित हुए और कहने लगे, 'ये तो स्वयं भगवान् तीर्थकर मालूम पड़ते हैं, अन्यथा इ प्रकार की अमृतस्राविणी वाणी कहाँ मिल सकती है ।'
समस्या-पूर्ति
व्याख्यान
'और शास्त्रार्थ करने में जो प्रसिद्धि गणिजी ने प्राप्त की, वही समस्यात के क्षेत्र में भी उन्हें सहज सुलभ हुई । समस्या - पूर्ति में न केवल उनकी काव्य-प्रतिभा,
१. इसका उल्लेख तत्कालीन ही देवालय के निर्मापक सेठ धनदेव के पुत्र कवि पदुमानन्द अपने वैराग्यशतक में भी करते हैं :
"सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः । श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च तस्याङ्गजः, पद्मानन्दशतं व्यधत्त सुधियामानन्दसम्पत्तये || " २. ये लेख चित्तौड़, नरवर, नागोर, मरुकोट्ट आदि के मन्दिरों में उत्कीर्ण करवाये गये थे । ३. जैसलमेर राज्यवर्ती बीकमपुर ।
वल्लभ-भारती ]
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