________________
सार्द्ध शतक टिप्पन:
( श्रा० ) " सिद्धत्थसुयं नमिउं सुहमत्थवियाटिप्परगं किंचि । सुगुरुवसे श्रहं भणामि सरणत्थमप्पस्स ।
तत्थ पगरणकारों मगलाभिधियारां पडिपायर्णानिमित्तं इमां गाहामाहः(०) "इति सूक्ष्मार्थवचारसारप्रकरणस्य टिप्पणकं समाप्तम् ॥ इति ॥ ग्र० १४५० "
षडशीति टिप्पण:
श्रा० “सर पासजिणं नमिउं वत्थुविया रस्स विवरण भरणमो ।
इह श्रायसुमररत्थं गुरुवएसा समासेण ॥
"तत्थ ताव पगरणकारो इट्ठदेवयाणमोक्कारपुव्वं श्रभिधेयं हंश्रोयण च गाहादुगेण
भणेइ:
इन तीनों टिप्पणकों की रचना प्राकृत भाषा में ही है। इससे आपका प्राकृत भाषा और कर्मसिद्धान्त पर अच्छा अधिकार था, ऐसा प्रतीत होता है। इन तीनों टिप्पणों की जिनमें प्रथम सं० १२११ तथा २, ३ सं० १२४६ लिखित प्राचीन प्रतियां जैसलमेर जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार में सुरक्षित हैं ।
(०) सुगुरूगं सिरिजिणवल्लहारण सूरिण सूरिपवरालं । उज्झियनियकज्जारणं परोवगारेक्कर सियारणं ॥ २ ॥ जेण कय वत्युवियारसारनामं ति पगरणं पउरं ।
गंथ महत्यं तस्सेव णु विवरण विहिथं ॥ ३॥ तस्सिस्सल वेगं रामदेवगरिगणा उ मदमइनावि । पाइयवणे हि फुडं भव्वहि यट्ठेरणं समासेण ||४|
इनकी टिप्पण संज्ञा होते हुए भी कतिपय वर्ण्यस्थलों पर आपने विवेचन भी विस्तार से बहुत सुन्दर किया है ।
धनेश्वरसूरि
सूक्ष्मार्थ- विचार - सारोद्धार प्रकरण के सर्वप्रथम टीकाकार श्री धनेश्वरसूरि त्रिभुवनगिरि के सम्राट् कर्दम भूपति थे और प्रतिबुद्ध होकर चन्द्रकुलीय श्री शीलभद्रसूरि के शिष्य बने थे। इनने अपने शिष्य पार्श्वदेव गणि ( आचार्य पदारूढ होने पर श्रीचन्द्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध ) की सहायता से सं० १९७१ चैत्र शुक्ला सप्तमी गुरुवार को अणहिलपुर पत्तन में रह कर इस वृहत्परिमाणवाली टीका की रचना पूर्ण की है। इसका संशोधन तत्समय के प्रसिद्ध आचार्य चक्रेश्वरसूरि ने किया है और इसका प्रथमालेखन इन्हीं के शिष्य मुनिचन्द्रगणि ने किया है:
१४४ ]
-
सम्पूर्ण निर्मलकलाकलितं सदैव जाड्येन वर्जितमखण्डितवृत्तभावम् । दोषानुषङ्गरहित नितरां समस्ति चान्द्र कुलं स्थिरमपूर्वशशाङ्कतुल्यम् ॥३॥ तस्मिंश्चरित्रधनधामतया यथार्थः, सजज्ञिर ननु धनेश्वरसूरिवर्याः ॥ नीहारहारह रहा रविका शिकाश-सङ्काशकी त्तिनिवहैर्धवलीकृताशाः ॥ ४ ॥ ॥
[ वल्लभ भारती