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मामलपुरस्स एसा निप्फत्तिमुवागया विहारम्मि । नियसीसरामचंदाभिहारण परिषरको सहायत्ता ॥२॥ विक्कमनिवामसंवच्छरेसु नहमुखिहरप्पमारणेसु । तीइ सुइ मासिद्धा जेट्ठा इम बोय गुरुवारे ॥३॥ पच्चक्खरं निरूविय सिलोगमारपेण ठावियं मारसं ।
चउवोससयाई तिसत्तराई एपाए चुन्नीए ॥४॥ आचार्य जिनवल्लभ प्रणीत ग्रन्थों पर सर्वप्रथम व्याख्याओं में हमें यह चूर्णी ही प्राप्त होती है। स्मरण रहे कि यह चूर्णी आ० जिनवल्लभ के देहावसान के ३ वर्ष पश्चात् ही बनाई गई है। यह चूर्णी, चूर्णी के नियमानुसार प्राकृत भाषा में रची गई है। ग्रन्थस्थ प्रत्येक वाक्यों को चूर्ण-चूर्ण करके विशद व्याख्या सह पदार्थ का प्रतिपादन चूर्णीकार ने बहुत ही सफलता के साथ किया है और आगमिक उद्धरणों सह प्रत्येक वस्तुओं का स्पष्टीकरण भी सुन्दर पद्धति से किया है। कई अंशों में तो आचार्य धनेश्वर की अपेक्षा भी यह चूर्णी विशेष महत्त्व रखती है। चूर्णीगत भाषा की प्राञ्जलता, प्रौढता और प्रवाहपूर्णता देखकर निश्चिततया कह सकते हैं कि चूर्णीकार का प्राकृत भाषा पर असाधारण अधिकार था। खेद है कि ऐसी महत्त्वपूर्ण चूर्णी का अभी तक भी प्रकाशन नहीं हुआ है।
___ इसकी प्रतियां प्र० कान्तिविजय जी संग्रह बड़ोदरा आदि में प्राप्त है।
रामदेव गणि . रामदेव गणि के संबंध कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है किन्तु स्वकृत षडशीति टिप्पणक में 'तस्सिस्सलवेणं' से तथा सुमति गणि रचित गणधरसार्द्ध-शतक वृहद्वृत्ति में उल्लिखित “स हि भगवान् (जिनवल्लभसूरिः ) यस्य शिरसि स्वहस्तपद्म ददाति, स जडोऽपि रामदेवगणिरिव वदनकमलावतीर्णभारतीको त्यन्तदुर्बोध-सूक्ष्मार्थसारप्रकरणवृत्ति विरचयति ।" उल्लेख से यह सिद्ध है कि आप जिनवल्लभरि के स्वहस्त-दीक्षित शिष्य थे। आपकी दीक्षा कब हुई, इसका कोई उल्लेख नहीं है किन्तु १.३०-६७ के मध्य में आपकी दीक्षा हुई होगी।
___आपकी रचनाओं में सत्तरीटिप्पन, सार्द्धशतक टिप्पन तथा षडशीति टिप्पन प्राप्त हैं । जिनके आद्यन्त इस प्रकार हैं:सत्तरी टिप्पन:
(प्रा.) "सुगइगमसरलसररिण वीरं नमिऊरण मोहतमतरणि ।
सत्तरिए टिप्पेमि किंचि तुन्नीउ अणुसरिउ । (नं.) "इय एउ सुमरणस्थं टिप्पण मित्तपि किषि उद्धरियं ।
लक्खरखछंदवियारो न य काय०वो य कोंविदहं ॥४४७॥ इत्थ य सुत्तविवन्न भइमोहा किपि उद्धयि होज्जा । सोहिंतु जारणमारण मज्झ य मिच्छुक्कडं होउ ।।४४८।। कृतिरियं श्रीरामदेवगरपः।"
वल्लभ-भारती ]
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