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४०. इसमें १६ मालिनी और १७ वां हरिणी छन्द है।
४१. यह स्तम्भनाधीश पार्श्वजिन स्तोत्र चित्र-काव्यमय है । १० पद्य हैं। १६ पद्य अनुष्टुप् हैं और १० वां १५ मात्रिक".."छन्द है। प्रथम पद्य में चित्र-काव्यों के नाम हैं और २ से १ में शक्ति, शूल, शर, मुसल, हल, वज्र, असि, धनुः चित्रकाव्यों में गुणवर्णनात्मक जिन स्तुति है । १० वां पद्य उपसंहारात्मक है। चित्रकाव्यत्व की दृष्टि से यह लघु रचना आचार्यश्री की सर्वोत्तम कृति है।
४२. यह स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र चक्रबन्ध काव्यात्मक अष्टक स्तोत्र है। प्रत्येक श्लोक षडारक चक्रबन्ध चित्रकाव्य में गुंफित है । अष्टम पद्य में धर्मशिक्षा, संघपट्टक के समान कवि ने 'जिनवल्लभ गणिना' स्वनाम भी अंकित किया है । छन्द शार्दूलविक्रीडित है।
४३ भारती स्तोत्र जैन-साहित्य में जिनेश्वर देव की वाणी ही श्रुतदेवता या सरस्वती कहलाती है। वह अन्य देवियों की तरह कोई स्वतन्त्र शक्ति नहीं है। यही कारण है कि स्वतन्त्र रूप से 'सरस्वती' पर स्तोत्र-साहित्य नहीं मिलता। प्राचीन जैन ग्रन्थकारों ने ग्रन्थारंभ में प्राय: सरस्वती का स्मरण अवश्य किया है किन्तु जिनवाणी के रूप में ही।
आचार्य जिनवल्लभ ने इसी सरस्वती को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार कर इस स्तोत्र की रचना की है। इन्हीं के चरण-चिह्नों पर चल कर परवर्ती कवियों ने इसको सरस्वती देवी के रूप में स्वीकार किया है। इसी के पश्चात् सरस्वती देवी की मूर्तियों का निर्माण भी प्रारंभ हुआ। युगप्रवरागम जिनपतिसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने सं. १३१७ में भीमपलासी स्थान पर ५१ अंगुल परिमाण की मूर्ति की प्रतिष्ठा' की ही थी। कुछ विद्वानों के मतानुसार सरस्वती की प्राचीनतम प्रतिमायें जैनों द्वारा ही स्थापित हुई हैं।
____ हरिणीवृत्त में ग्रथित यह भारती स्तोत्र २५ श्लोकों में है । रचना की शैली सदा की भांति ही सालंकारिक, सुललितपदा तथा विदग्धमनोहरा है । सरस्वती का स्वतंत्र स्वरूप स्थापित करते हुए भी कवि ने उसका जिनवाणीरूप दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया है। इसीलिये वह भारती से 'परमविरतं' की याचना करता है।
४४. नवकार स्तोत्र नवकार मंत्र समस्त जैन सम्प्रदायों में सर्वश्रेष्ठ मन्त्र माना जाता है। इसे १४ पूर्वो का सार स्वीकार करते हुए जैन सम्प्रदाय इसकी महत्ता के सम्मुख चिन्तामणिरत्न, कल्पवृक्ष, चित्रावेली, रत्नराशि तथा कामकुम्भ को भी तुच्छ गिनता है। शत्र जय तीर्थ के समान ही इस मन्त्र को प्रमुखता प्रदान की गई है।
इस नवकार मन्त्र में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं को पंच परमेष्ठि रूप में स्वीकार किया गया है । उसके आराधक को 'सर्वपाप विनिर्मुक्त' होने का
१. युगप्रधानाचार्ग गुर्वाबली पृ० ५१
वल्लभ-भारती ]
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