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३३. पन्च कल्याणाक स्तोत्र इसमें स्रग्धरावृत्त में समग्र जिनेश्वरों के पांचों कल्याण कों के अतिशयों का वर्णन है । प्रत्येक दो-दो श्लोकों में एक-एक कल्याणक का वर्णन है और अन्तिम दो पद्यों में इन सब का महत्त्व । इसकी रचना अलंकार पूर्ण और ओजमयी शैली में हुई है । इसमें समासों की जटिलता अधिक होते हुए भी सरलता होना ही इसकी विशिष्टता है। इसकी भाषा संस्कृत है।
३४. कल्याणाक स्तोत्र इसमें श्लोक २ से ६ तक एक-एक श्लोक में एक-एक कल्याणक का वर्णन है और प्रथम तथा अन्तिम पद्य में इनकी महत्ता वर्णित है । इसमें केवल अनुष्टुप् छन्द का ही कवि ने प्रयोग किया है।
३५-४२. अष्ट स्तोत्र सर्वजिनेश्वर स्तोत्र और पार्श्वनाथ स्तोत्र सं. ३६ से ४२ में से प्रत्येक स्तोत्र संस्कृत भाषा में है । इन सब में न केवल कवि को शब्दचयन शक्ति, उक्ति-वैचित्य चित्र-काव्यात्मकता और अलंकार-प्रयोग का तो हमें ज्ञान होता ही है अपितु इसके साथ-साथ ओज के साथ प्रसाद गुण, समास जटिलता के साथ सरलता और व्याकरण के साथ दर्शन का भी सुन्दर समन्वय दृष्टिगोचर होता है। उपमा, रूपक, अनुप्रास, इलेष, यमक, निदर्शना, विभावना विशेषोक्ति, अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, अतिशयोक्ति आदि अलंकार तो इन स्तोत्रों में इधर-उधर बिखरी हुई मणिराजी के समान बिखरे हुए दीख पड़ते हैं । इन आठों की पृथक्-पृथक् विशिष्टता निम्नलिखित है:
३५. सर्वजिन स्तोत्रः -सम्पूर्ण जिनेश्वरों की वसन्ततिलका वृत्त द्वारा २३ पद्यों में स्तुति की गई है।
३६. पार्श्वजिन स्तोत्र:-तैवीसवें तीर्थकर आश्वसेनीय पार्श्वनाथ की स्तवना की गई है। कूल श्लोक ३३ हैं। शिखरिणी, मालिनी, वसन्ततिलका और हरिणी छन्दों के चार अष्टकों में रचना की गई। अन्तिम पद्य शार्दूलविक्रीडित में उपसंहार का है।
इस आद्यस्तोत्र में उपसंहार के पद्य में कवि की उस प्रतिभा के बीज का हमें भली भांति दर्शन हो जाता है जो आगे जाकर अंकुरित-पल्लवित और पुष्पित होती हुई नाना रूप ग्रहण करके कवि की यशश्री को बढ़ाती है । प्रथम रचना में होने वाले गुणापकर्ष के प्रति कवि स्वयं सजग है । जैसा कि उसने स्वयं लिखा है:
____ 'प्रज्ञानाद् भरिणति स्थितेः प्रथमकाभ्यासात् कवित्वस्य यत्'
३७. यह पार्श्वस्तोत्र स्रग्धरा छन्द में ग्रथित है और उपसंहार का ६ वां पद्य वसन्ततिलका में है।
३८. यह पार्श्वनाथ स्तोत्र स्रग्धरा छन्द में है और इसमें १० श्लोक हैं।
३९. इसके २४ श्लोक हैं। जिनमें २३ लोक शिखरिणी और अन्तिम श्लोक शार्दूलविक्रीडित में है। १२२ ]
[ वल्लभ-भारती