SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्व में इस समय पाल वंशी नयपाल और उसका पुत्र विग्रहपाल राज्य कर रहे थे। दक्षिण में चोल राजा वीरता और साहस में बढ़े चढ़े थे। इस वंश का राजेन्द्र चोल प्रथम (१०१८ से १०३५ ई०) बहुत बड़ा विजेता था। उसने समुद्र पार के कई द्वीपों को जीत लिया था और बिना किसी प्रतिरोध के उत्तरी भारत में गंगा तक की सैन्य यात्रा की थी।' उक्त ऐतिहासिक तथ्यों से प्रकट है कि यवनों के प्रारम्भिक आक्रमणों के समय भारत में भीमदेव, सिद्धराज जयसिंह, मुज, सिन्धुराज , भोज,कर्ण (चेदि), तैलप, विग्रहराज (वीसलदेव चतुर्थ). पृथ्वीराज चौहान, राजेन्द्र चोल आदि अनेक योग्य शासक हुए थे। उनके मंत्री तत्कालीन भारत के योग्यतम राजनीतिज्ञ थे। यदि वे विदेशी आक्रान्ताओं के सम्मुख एक होकर प्रतिरोध करने को तैयार हो जाते तो कदाचित् भारत को दासता की दुर्भाग्यशाली सहस्राब्दि का दुर्दर्शन न करना पड़ता। उनके बीच कोई गंभीर मतभेद भी न थे जो आसानी से दूर नहीं किये जा सकते हों। उनमें से कई ने कलाओं को संरक्षण देकर उनकी उन्नति में जो अपूर्व कार्य कर दिखाया उससे उन शासकों व उनके सामन्तों का बुद्धिकौशल भी प्रगट होता है। फिर भी छोटी-छोटी बातों के लिए उन्होंने युद्ध किया और अपनी शक्ति को इतना श्रान्त-क्लान्त, छिन्न-विच्छिन्न कर दिया कि उसका फल आगामी पीढियों को एक हजार वर्ष तक भोगना पड़ा। कला व साहित्य के क्षेत्र में जहां हम उनका नाम अत्यन्त आदर के साथ लेते हैं वहां उनके चक्षुहीन कृत्यों के कारण हमें खेद पूर्वक सिर झुका लेना पड़ता है। यह आश्चर्य की बात है 'गुजरात का नाथ' भीमदेव महमूद गजनवी पर पीछे से आक्रमण करे और छोटे २ राजपूताने के शासक उससे जम कर लोहा लें । अजमेर के चौहान वीर्यराम ने महमूद को युद्ध में घायल करके वापस लौटा दिया था। - इन समकालीन शासकों के समय अनेक साहित्यकारों ने अपनी रचनाएं लिखीं। जिनवल्लभसूरि सिद्धराज जयसिंह के समय आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे। उनका गुजरात, मेदपाट, अवन्ती, नरवर, नागोर आदि स्थानों से सीधा सम्पर्क था। चित्रकूट (चित्तौड़),धारानगरी, नागौर आदि स्थानों पर उपदेश देकर भक्तों को कृतकार्य किया था।४ आचार्य जिनवल्लभसूरि के ग्रन्थों में कहीं भी प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः यवन आक्रमणों के विषय में उल्लेख नहीं मिलता। इससे प्रकट है कि इन धर्मप्रिय आचार्यों का मन बाह्य संसार से नितान्त निलिप्त था। उन्हें धर्म-सत्य की उपलब्धि हुई थी जिसके सामने यवनों के अत्याचारों का भय नहीं था। भोजराज, सिद्धराज, विग्रहराज, नरवर्म आदि उदार शासकों का आश्रय अन्य धर्माचार्यों के साथ जैनाचार्यों को भी मिला था। कई आचार्यों को इन शासकों के मान्य १. भारत के प्राचीन राजवंश : विश्वेश्वरनाथ रेउ पृ. ६ २. पृथ्वीराज विजय काव्य । ३. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास : मो० दु० देसाई । ४. वही। वल्लभ-भारती ] [६
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy