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तहि चेडाहिव हर नमउ, सुमरिणय परमत्थाह । हीयडइ जिरणवर इक्कपर, अनु सुद्धउ गुरु जाह ।।१५।। जिणि जिरणवर पडू हीलियइ, जणु रजियइ सहासु । सो वि सुगुरु परामंत यह, फूटि न हिया हयासु ।।१६।। मिरियभवे जिउ वीर जिण, इक्क उसत्त लवेण । कोडाकोडि सागर भमिउ, किं न भणह मोहेण ॥१७॥ तव संजम सुत्तेण सहु, सव्वु वि सहलउ होइ। सो वि उसुत्तलवेण सह, भवदुह-लक्खई देइ ।।१८।। माया, मोह चएह जण, दुलहउ जिण-विहधम्म । जो जिणवल्लहसूरि कहिउ, सिग्ध देह सिव सम्मु ॥१६।। संसउ कोइ म करहु मुरिण, संसइ होइ मिच्छत्तु । जिणवल्लहसूरि जुगपवर, नमहु सु तिजग पवित्त ॥२०॥ जइ जिणवल्लहसूरि गुरु, नह दिट्ठउ नयणेहिं । जुगपहाण तउ जाणीयइ, निच्छइ गुण-चरिएहिं ।।२१।। ते धन्ना सुकयस्थ नर, ते संसारु तरंति । जे जिणवल्लहसूरि तणीए, प्राण सिरेण धरंति ।।२२।। तह न रोग दोहगु नह, तह मंगल कल्लाण । जे जिणवल्लह गुरु नमइ, तिन्नि संझ सुविहाण ।।२३।। सुविहिय-मुरिण-चूडान्यण, जिणवल्लह बहुराउ । - इक्क जीह किम संथुरण उ, भोलउ भत्ति सहाउ ।।२४।। संपइ ते मन्नादि गुरु, उग्गइ उग्गइ सूरि । जो जिणवल्लह पह कहइ, गमइ उमग्गु सुदूरि ।।२५।। इकि जिण वल्लह जाणीयइ, सव्वु मुरिणयइ धम्मु । अनु सुहगुरु सवि. मंनियउ, तित्थु जि धरहिं सुहम्मु ।।२६।। इय जिणवल्लह थुइ भणिय, सुरिणयइ करइ कल्लाणु । देउ बोहि चउषीस जिण, सासइ सुखनिहाणु ।।२७।। जिरणवल्लह ऋमि जारिणयउ, हिव मइ तासु सुसीम् । जिदत्तसूरि जुगपवरो, उद्धरियउ गुरुवंसो ॥२८॥ तिणि निय पइ पुरण ठावियउ, बालउ सीहकिसोरु । परमइ-मइगल-बलदलणु, जिरणचंदसूरि मुणि सारु ॥२६॥ तसु सुपट्टि हिव गुरु जयउ, जिणपत्तिसूरि मुरिणराउ । जिएमय-विहि-उज्जोयकरु, दिणवर जिम विक्खाउ ॥३०॥ पारतंतु विहि विसयसुहु, वीरजिणेसर बयणु । जिरणवइसूरि गुरु हिव कहइ, निच्छइ अन्न न कवरणु ॥३१॥ घन्न ति पुरचर पट्टणई, धन्न ति देस विचित्त । जिहि विहर जिणवइ सुगुरु, देसरण करइ पवित्त ॥३२॥
वल्लभ-भारती]