________________
"इहातिगम्भीरापारसंसारपारावारविहा रिजन्तुनाऽति निविडशैवलवलयविस्फुरितान्धकारमहाह्रदविवर निगतग्रीवकच्छपेनेव करप्रस र विधुरितान्धकारतारतारकपरिकरितकौमुदीशशाङ्कदर्शनमिवावाप्यातिदुष्प्रापं जिनधर्मान्वितं मानुषत्वं सकलपुरुषार्थसारे परोपकारे यतितव्यम् । स च न निखिलकल्याणकारि जिनशासनो देशमन्तरेण । तस्य च प्रभूततरपदार्थविषययत्वेऽपि प्रथमं तावत् कर्मणः सकलदुःखोपनिपातहेतुत्वेन परमारातिभूतवात् तत्स्वरूपप्रकाशनविष एवासौ युक्तः । तत्परिज्ञाने हि सदनुष्ठानतस्तदुच्छेदमाधाय प्राणिनः परमपदसम्पदं सपदि समासादयन्तीति । तत्स्वरूपप्रकाशनं च यद्यपि कर्म प्रकृत्यादिषु प्रभूततरग्रन्थेषु विहितमेव । तथापि तेऽतिविस्तीर्णत्वेनातिगम्भीरतया च दुरवगाहत्वाद् विशिष्ट संहननमेधादिरहितानामिदानीन्तन मानवानां न तथाविधोपकारायालम् । अतस्तेषामनुग्रहाय कर्मप्रकृति-पञ्चसंग्रहादिशास्त्रादेवोद्धृत्य कर्मगतकतिचित्पदार्थानां प्रसङ्गतस्तदितरेषां च केषाञ्चित्प्ररूपणाय सूक्ष्मपदाfootoसन्निभप्रतिभः श्रीजिनवल्लभाख्यः सूरिः सार्द्ध शतकाख्यं प्रकरणं चिकीर्षुः ।"
यह टीका जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर से प्रकाशित हो चुकी है ।
मलयगिरि
आगमिवस्तुविचारसार प्रकरण के टीकाकार श्रीमलयगिरि के नाम से कौन जैन विद्वान् परिचित न होगा ? जैन आगमों में उपांग- नाहित्य, छेद- साहित्य और प्रकरण- साहित्य पर आपकी उद्भट और प्राञ्जल लेखिनी न चलती तो आज इस साहित्य का ज्ञान भी हमें होता या नहीं ? संदेह ही है । नवाङ्गीवृत्तिकारक खरतरगच्छविभूषण आचार्य श्री अभयदेव - सूरि के समान ही आप भी अपने व्याख्या-ग्रन्थों के कारण जैन- साहित्याकाश में सूर्य के समान प्रभापूर्ण स्थायी हो गये । श्वेताम्बर समुदाय के समस्तगच्छ और समग्र विद्वान् आपको सदा से श्रद्धाञ्जलि चढाते आये हैं और आपके वाक्यों को आप्तवाक्य सदृश समझते आये हैं ।
किन्तु खेद है कि ऐसे भागधेय आचार्य का यत्किंचित् भी जीवन-वृत्त हमें प्राप्त नहीं होता । स्वयं टीकाकार ने अपनी लाघवता के कारण किसी भी टीका या ग्रन्थ में अपने नाम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लिखा है । और तो और, किन्तु रचना संवत् का भी उल्लेख हमें प्राप्त नहीं होता । आपके कतिपय ग्रन्थों के आधार से केवल इतना हो निश्चित है कि आप चालुक्यवंशी कुमारपाल के समय में मौजुद थे। किंवदन्तियों के आधार से तो यह मालूम होता है कि तत्समय के प्रसिद्ध जैनाचार्य महाराजा कुमारपाल प्रतिबोधक श्रीहेमचन्द्राचार्य के आप सहपाठी और सहविहारी थे और एक समय इन दोनों ने साथ ही में देवी की आराधना भी की थी। कुछ भी हो, यह निश्चित है कि आपका सत्ताकाल १३ वीं शती का पूर्वार्ध है।
आपके प्रणीत अनेक ग्रन्थ हैं जिनका विस्तृत विवेचन जैन साहित्य नो संक्षिप्त इति हास पृ० २७३ तथा मुनि पुण्यविजयजी लिखित बृहत्कल्पसूत्र प्रस्तावना में देखना चाहिये । प्रस्तुत टीका अन्य टीकाओं की अपेक्षा प्रौढ और उपादेय है । किसी-किसी स्थल पर तो ( जैसे १४ गुणस्थान) टीकाकार ने इतना अधिक विशद विवेचन किया है कि उस
१४६ ]
[ वल्लभ-भारती