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तस्याङ्गजोऽजनि जनव्रजनीरजाको, बीजाभिधो विधुत विपक्षलक्ष: । कक्षीकृताखिलमहोपकृतिकृतज्ञः, सर्वज्ञशासनसरोजमरालमौलिः ||२||
तत्पुत्रः कामदेवोऽभूत्, कामदेव-समद्य ुतिः ।
प्रथिनां कामदः कामं, सामजातगतिः ( ? ) कृती ॥३॥ तस्याङ्गभूः समजनिष्ट विशिष्ट कीत्ति - श्रीदेवसिंह इति सिंहसमानशौर्यः । वर्यः सतां गुणवतां प्रथमः पृथुश्रीस्तीर्थङ्करक्रमसरोरुहचञ्चरीकः ।।४।। पुत्रस्तदीयोऽजनि वस्तुपालः, शुभाशयोऽद्धन्दुसनाभिभाल: । जिनेन्द्रपादाचं ननाकपालः,
समस्त वैरिव्रजनाशकालः ||५||
सच्चरित्रपवित्रितो |
अभूतामस्य पुत्रौ द्वौ ज्येष्ठः सहजपालाख्यो, द्वितीयो
भीषणः प्रभुः || ६ ||
नि षणो यो निजवंशभूषणं, गुखानुरागेण वशीकृताशयः । श्रनन्यसामान्यवरेण्यतां दधद्दधाति निःकेवलमेव धर्मताम् ||७||
यः कारुण्य पयोनिधि गवतां मुख्यः सतामग्रणी - मद्य ( ? ) रिकुलेभ केशरि शिशुविश्वोपकारक्षमः । धर्मज्ञः सुविचक्षणः कविकुलैः संस्तूयमानो वशी, जीयाज्जैन मताम्बुजैकमधुपः श्रीभीषणः शुद्धधीः ||८ ॥ देवगुरुचरणनिरतो विरतो पापात् प्रमादसंत्यक्तः । सोऽयं भीषणनामा कामतनुर्भाति धर्ममतिः । ६ । सोऽहमम्यथितोऽत्यर्थं टीकां ठक्कुरभीषणैः । सिन्दूरकरस्यास्याकार्ष चारित्रवर्द्धनः ||६||
[ सिन्दूरप्रकर वृत्ति प्रशस्तिः ] उपासकों के लिये रघुवंश, कुमारसंभव तथा शिशुपालवध इत्यादि महाकाव्यों पर प्रौढ एवं परिष्कृत शैली में व्याख्या करना उपासकों की योग्यता और बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करता है।
देशलहर सन्तानीय चेचटगोत्रीय भैरवसुत सहस्रमल्ल, श्रीमालवंशीय डौडागोत्रीय सालिग सुत अरडक्कमल तथा श्रीमालवंशीय ढोरगोत्रीय ठक्कुर भीषण प्रायः करके विहार और उत्तर प्रदेश के ही निवासी थे और संभवतः यह निश्चित है कि लघु खरतर शाखा का फैलाव भी इसी प्रदेश में था । आगे भी हम देखते हैं कि १७ वीं शती के अन्तिम चरण में जब इस लघु शाखा परम्परा का ह्रास हो जाता है, तो बृहत्शाखीय जिनराजसूरि के शिष्य निरंगसूरि को इस शाखा के अनुयायी स्वीकार लेते हैं जो आज भी इसी रूप अवस्थित हैं । अतः चारित्रवर्धन का विहार- भ्रमण- प्रदेश भी यही प्रदेश रहा है । केवल २,४,७ नं० की कृतियों में संवत् का उल्लेख प्राप्त है, अन्यों में नहीं । नैषधटीका की रचना स० १५९११ में हुई है । यदि इस रचना को अन्तिम मान लें तो अनुमानतः सं० १५२० तक आप विद्यमान रहे होंगे ।
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[ वल्लभ-भारती