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________________ इसी प्रकार 'क्ष' कार की छटा का कोमल-वर्णों की सन्निधि में जो अनुपम चमत्कार उत्पन्न करने का प्रयत्न कवि ने सर्व जिनेश्वर स्तोत्र में किया है, उसका अनूठा उदाहरण निम्नलिखित श्लोक में देखा जा सकता है: "क्षण्णक्षक्षिपितमोक्षविपक्षलक्ष- क्षीणक्षदाभितपदिमलहक्कटाक्षः। क्षान्तिक्षत-क्षजिताक्ष-सदक्षमा, रक्ष क्षणं क्षतकमक्षनिरीक्षणान माम् ॥२१॥" एक पार्श्वनाथ स्तोत्र में सभी छंदों में एक-एक ऐसा वर्ण या वर्णसमदाय चुना गया है जो उस मालिनी के छंद की प्रत्येक यति पर आता है। इस प्रकार कहीं "ठं" की आवृत्ति है तो कहीं "आरं" की और कहीं पर "क्षं" या "हारं" की। उदाहरण के लिये स्तोत्र के प्रथम छंद में "द्र" की आवृत्ति देखिये: "विनयविनमदिन्द्र मन्ममोम्भोधिचन्द्र, हित कृतिगततन्द्र प्राणिषु प्रीतिसान्द्रम् । वचसि जलदमन्द्र संस्तुवे पार्श्वचन्द्र, त्रिजगदवितथेन्द्र धैर्यधूताचलेन्द्रम् ॥१॥" इस प्रकार जिनवल्लभ की काव्यकला में उक्ति-वैचित्य, पदलालित्य तथा प्रयोगवैलक्षण्य के साथ-साथ लक्षणा और व्यंजना तथा अलंकार और रस की दृष्टि से जो समद्धि एवं सफलता दिखलाई पड़ती है वह कवि की भक्ति-भावना तथा सहृदयता के कारण अत्यन्त हृदयग्राही और मर्मस्पर्शी हो गई है। उनके काव्य में जो सौन्दर्य, अलंकरण तथा चमत्कार मिलता है, उस सब से अधिक यदि कोई भी एक गुण सर्वोपरि तथा सर्वोत्कृष्ट कहा जा सकता है तो, वह है जिनवल्लभ की मानवता, निश्छल, निष्कपट, उदार तथा आडम्बरहीन एवं अकृत्रिम मानवता । सत् और असत्, पुण्य और पाप, उच्च और नीच तथा पावन और पतित के द्वन्द्व को एक साथ लेकर चलने वाली जीवन-यात्रा में मिथ्यात्व से क्रमशः उठते हए अहंतु पद-प्राप्ति के लिये निरन्तर प्रयत्नशील होने का नाम ही तो मानवता है। यद्यपि इस दृष्टि से जैन-धर्म की भांति सभी धर्म मानवता के पर्यायवाची कहे जायेंगे, परन्तु कितने हैं ऐसे धर्मध्वजी, साधुत्व का ढिंढोरा पीटने वाले तथा परोपदेशकुशल प्रचारक और गुरु मन्य लोग; जो अपने दंभ, पाखंड और आडंबर को छोड़कर आचार्य जिनवल्लभ के चरण-चिह्नों पर चलकर अपने भगवान् के सामने हृदय के नग्नरूप को रखकर कह सके कि:- . "उल्लासितारतरलामलहारिहारा-नारीगणा बहुविलासरसालसा मे। संसारस सरण भवभीनिमित्त, चित्रं हरन्ति भण किं करवाणि देव ॥२२॥" अतः निर्भीक मानव जिनवल्लभ, रससिद्ध कवीश्वर जिनवल्लभ से कहीं ऊपर है, अथवा यों कहें, प्रथम द्वितीय का जनक होने से उसमें अनुस्यूत है। इसीलिये द्वितीय महिमामय है। आचार्य जिनवल्लभ का व्यक्तित्व एक अद्भुत व्यक्तित्व है, जिसमें एक विक्रान्त-क्रान्तिकारी, प्रबलसूधारक, तपस्वी आचार्य तथा विलक्षण कवि का समन्वय मिलता है, परन्तु इन सब रूपों को प्रकाशित और उद्भासित करने वाला जिनवल्लभ के व्यक्तित्व का जो स्वरूप है वह सही वीर-मानव का स्वरूप है । अतः महावीर वरणरत इस परमवीर मानव को मेरा शत-शत प्रणाम अपित है। [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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