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३३. कलावती चौपाई (१६७३ सांगानेर)। ३४. बारह व्रत रास (१६५५)। ३५. जीवस्वरूप चौ.' (१६६४ राजनगर) । ३६. मूलदेव चौपाई (१६७३ जे• सु० ३ सांगानेर)। ३७. दुमुह प्रत्येक बुद्ध चौपाई।
__ खण्डनात्मकः-३८. अंचलमत स्वरूप वर्णन४ (१६७४ भा० सु० ६ मालपुरा)। ३६. लुम्पकमततमोदिनकर चौपाई' (१६७५ सा०व० ६ सांगानेर)। ४०. तपा ५१ बोल चौपाई (१६७६ राडद्रहपुर)। ४१. प्रश्नोत्तर मालिका अपरनाम पार्वचन्द्र मत दलन (१६७३ सांगानेर)। ४२. कुमतिमत खण्डन अपरनाम उत्सूत्रोद्घाटन कुलक (१६७५ नवानगर)। इनके अतिरिक्त आपके स्तवन और स्वाध्याय तो अनेक हैं जिनका यहां उल्लेख कर कलेवर बढाना उचित नहीं।
____ लघु अजित-शान्ति-स्तव टीका की प्रति सन्मुख न होने से इसका भी विवेचन नहीं किया जा सकता।
उपाध्याय देवचन्द्र अठारहवीं शती के सुप्रसिद्ध कवि, आध्यामिक और द्रव्यानुयोगिक उपाध्याय देवचन्द्र गणि खरतरगच्छीय उपाध्याय दीपचन्द्र गणि के शिष्य थे । आपका जन्म सं० १७४६ में बीकानेर निकटवर्ती ग्राम के निवासी लूणिया गोत्रीय तुलसीदास-धनबाई के यहां हुआ था। परम्परानुसार आपके अभिभावकों ने अपने पुत्ररत्न को बहोरा (भेंट) दिया था । श्री राजसागरजी ने आपको सं० १७५६ में दीक्षित कर आपका राजविमल नाम रखा । परन्तु आपका यह राजविमल नाम प्रसिद्धि को प्राप्त न कर सका, केवल देवचन्द्र नाम ही चलता रहा। सरस्वती की कृपा और गुरु के आशीर्वाद से थोड़े ही समय में आप सब ही शास्त्रों में निष्णात हो गये। सं० १७६६ में, २० वर्ष की अवस्था में आपने ध्यानदीपिका चौपाई नामक ग्रन्थ की पद्यबन्ध रचना कर आध्यात्मिक प्रगति और साहित्यनिष्ठा का जो परिचय दिया है वह स्मरणीय है। यह ध्यानदीपिका दि० शुभचन्द्राचार्य रचित ज्ञानार्णव का राजस्थानी पद्यानुवाद है।
____ आपका प्रारम्भिक विहार क्षेत्र तो सिन्ध व मरुधर ही रहा, किन्तु आपकी विमलकीत्ति मरुधर देश तक ही सीमित न रह सकी। आपकी ख्याति से प्रभावित होकर श्री खिमाविजयजी ने गुर्जर देश पधारने का आपको आमन्त्रण दिया। सं० १७७७ में आप पाटण पधारे और जहां श्री ज्ञानविमलसूरि जैसे विद्वान् भी सहस्रकूट चैत्यों के नाम बताने में असफल हो गये थे बहां आपने शास्त्रोक्त नाम बतला कर ज्ञानविमलसूरि के हृदय में भी अपना एक स्थान बना लिया था।
१. पत्र १३ भां० ओ० रि० इ० पूना, २. पत्र ५ मुकनजी संग्रह बीकानेर । ३. आदिपत्र यति रामलालजी सं. बीकानेर । ४. थाहरु भ० जैसलमेर । ५. जयपुर संघ भंडार । ६. बीकानेर भंडार। ७. प्रकाशित
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[वल्लभ-भारती